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संगति का फल
 

“भोजन करके पलंग पर लेटे ही थे आपका नाम सुनकर तुर्त उठ आए और बड़े जोश से आपकी खैरोआफियत पूछने लगे" "मैं अच्छी तरह जानता हूंँ वे मुझको प्राण से भी अधिक समझते हैं" लाला मदनमोहन ने पुलकित होकर कहा.

"आपकी चाल ही ऐसी है जो एक बार मिलता है हमेंशा के लिये चेला बन जाता है” मुन्शी चुनीलाल ने बढ़ावा देकर कहा.

“परंतु कानूनी बंदे इससे अलग हैं” मास्टर शिंभूदयाल ब्रज किशोर की तरफ इशारा कर के बोले.

“लीजिये ये टोपियां अठारह-अठारह रुपये में ठहरा लाया हूँ” हरगोविन्द ने लाला मदनमोहन के आगे चारों टोपियाँ रख कर कहा.

“तुमने तो उसकी आंखों में धूल डाल दी! अठारह-अठारह रुपये में कैसे ठहरा लाये? मुझको तो ये बाईस-बाईस रुपये से कम की किसी तरह नहीं जँचती” लाला मदनमोहन ने हरगोविंद का हाथ पकड़कर कहा.

“मैंने उसको आगे का फ़ायदा दिखाकर ललचाया और बड़ी बड़ी पट्टियाँ पढ़ाईं तब उसने लागत में दो-दो रुपये कम लेकर आपके नाम ये टोपियाँ दी हैं”

"अच्छा! यह लाला हरकिशोर आते हैं इनसे तो पूछिये ऐसी टोपी कितने-कितने में ला देंगे?” दूर से हरकिशोर बजाज़ को आते देखकर पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा.

“ये टोपियाँ हरनारायण बजाज के यहां कल लखनऊ से आई हैं