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नैराश्य (ना उम्मेदी).
 

खुलनें का समय आगया. ब्रजकिशोर सब बातों से भेदी थे इसलिये मैंने उन्हीं के जिम्मे इन बातों के छिपाने का बोझ डाल दिया कि वह अपनें विपरीति कुछ न करने पायं!" मुन्शी चुन्नीलाल ने हीरालाल की बात उड़ा कर कहा.

"परन्तु अब ब्रजकिशोर तुम्हारा भेद खोल दें तो तुम कैसे अपना बचाव करो? हर काम मैं आदमी को पहले अपने निकास का रस्ता सोचना चाहिये. अभिमन्यु की तरह धुन बांध कर चकाबू मैं घुसे चले जाओगे तो फिर निकलना बहुत कठिन होगा. पतंग उड़ाकर डोर अपनें हाथ न रक्खोगे तो उस्के हाथ लगनेंकी क्या उम्मेद रहेगी?" मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

"मैंनें अपनें निकास की उम्मेद केवल ब्रजकिशोर के विश्वास पर बांधी है परन्तु उन्की दो एक बातों सै मुझको अभी सन्देह होनें लगा. प्रथम तो उन्होंनें इस गए बीते समय मैं मदनमोहन सै मेल करनें मैं क्या फायदा बिचारा? और महन्तानें के लालच सै मेल किया भी था तो ऐसी जलदी काग़ज़ तैयार करनें की क्या ज़रूरत थी? मैं जान्ता हूं कि वह नालिश करनेंवालों सै जवाबदिही करनें के वास्तै यह उपाय करते होंगे परन्तु जब वह जवाबदिही करेंगे तो नालिश करनेंवालों की तरफ़ सै हमारा भेद अपनें आप खुल जायगा और जिस बात को हम दूर फेंका चाहते हैं वही पास आजावेगी" मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा.

"वकीलों के यही तो पेच होते हैं जिस बात को वह अपनी तरफ़ सै नहीं कहा चाहते उल्टे सीधे सवाल करके दूसरे के मुख सै कहा लेते हैं और आप भलेके भले बनें रहते हैं. बिचारो

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