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पतिब्रता.
 

मा की मांदगीका मामला था तीसरे मदनमोहन हुक्म दे चुके थे इस लिये लाचार होकर उस्ने दो, एक दिन के वास्ते जाने की तैयारी की थी.

मदनमोहन की स्त्री अपनें पतिकी सच्ची प्रीतिमान, शुभचिंतक, दुःख सुखकी साथन, और आज्ञा मैं रहनें वाली थी और मदनमोहन भी प्रारंभ मैं उस्सै बहुत ही प्रीति रखता था परन्तु जबसै वह चुन्नीलाल और शिंभूदयाल आदि नए मित्रोंकी संगति मैं बैठने लगा नाचरंग की धुनलगी, बेश्याओंके झूंटे हावभाव देखकर लोट पोट होगया? "अय! सुभानअल्लाह! क्या जोबन खिलरहा है!" "वल्लाह! क्या बहार आरही है?" "चश्म बद्‌दूर क्या भोली, भोली सूरत है!" "अय! परे हटो!" "मैं सदकै! मैं कुर्बान मुझे न छेड़ो!" "खुदाकी क़सम! मेरी तरफ़ तिरछी नज़र सै न देखो!" बस यह चोचलेकी बातें चित्तमैं चुभगईं किसी बातका अनुभव तो था ही नहीं तरुणाई की तरंग, शिंभूदयाल और चुन्नीलाल आदिकी संगति, द्रव्य और अधिकार के नशे मैं ऐसा चकचूर हुआ कि लोक परलोक की कुछ ख़बर न रही.

यह बिचारी सीधी सादी सुयोग्य स्त्री अब गंवारी मालूम होने लगी पहले, पहले कुछ दिन यह बात छिपी रही परन्तु प्रीति के फूलमैं कीड़ा लगे पीछे वह रस कहां रहसक्ता है? उस्समय परस्पर के मिलाप सै किसी का जी नहीं भरताथा, बातोंकी गुलझटी कभी सुलझनें नहीं पातीथी, आधी बात मुख मैं और आधी होटोंही मैं हो जातीथी, आंखसै आंख मिल्तेही दोनोंको अपने आप हँसी आजाती थी केवल हँसी नहीं उस हँसी मैं धूप छाया