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परीक्षागुरु.
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कुछ चिन्ता नहीं जब मैं उन्को अनसमझ जान कर उन्के कहनें सै उन्हें छोड आया तो मैंनें कौन्सी बुद्धिमानी की? पर मैं रह कर क्या करता? हां मैं हां मिला कर रहना रोगी को कुपथ्य देनें सै कम न था और ऐसे अवसर पर उन्का नुक्सान देख कर चुप हो रहना भी स्वार्थ परता सै क्या कम था? मेरा बिचार सदैव सै यह रहता है कि काम करना तो बिधी पूर्वक करना. न होसके तो चुप हो रहना, बेगार तक को बेगार न समझना परन्तु वहां तो मेरे वाजबी कहनें से उल्टा असर होता था और दिनपर दिन जिद बढ़ती जाती थी मैंने बहुत धैर्य सै उन्को राह पर लानें के अनेक उपाय किये पर उन्नें किसी हालत मैं अपनी हद्द सै आगै बढ़ना मंजूर न किया.

असल तो ये है कि अब मदनमोहन बच्चे नहीं रहे उन्की उम्र पक गई, किसीका दबाब उन्पर नहीं रहा लोगोंनें हां मैं हां मिला कर उन्की भूलों को और दृढ कर दिया रुपे के कारण उन्को अपनी भूलों का फल न मिला और संसारके दुःख सुखका अनुभव भी न होनें पाया बस रंग पक्का होगया विदुरजी कहते हैं कि "सन्त असन्त तपस्वी चोर। पापी सुकृती हृदय कठोर॥ तैसो होय बसे जिहि संग। जैसो होत बसन मिल रंग॥"*[१]

यदि वह सावधान हों तो अंगद हनुमान की तरह उन्की आज्ञा पालन करनें मैं सब कर्तव्य संपादन हो जाते हैं परन्तु जहां ऐसा नहीं होता वहां बड़ी कठिनाई पड़ती है. सकड़ी गली मैं हाथी नहीं चल्ता तब महावत कूढ़ बाजता है वृन्द कहता है


    • यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विन यदि वा स्तनमेव॥

    बासो यथा रंगवशं प्रयाति तथा सतेषां वशमभ्युपैति॥