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परीक्षागुरु.
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प्रकरण १९.


स्वतन्त्रता.

"स्तुति निन्दा कोऊ करहि लक्ष्मी रहहि कि जाय
मरै कि जियै न धीरजन धरै कुमारग पाय॥*[१]

प्रसंगरत्नावली.

"सच तो यह है कि आज लाला ब्रजकिशोर साहब नें बहुत अच्छी तरह भाईचारा निभाया इन्की बात चीत मैं यह बडी तारीफ़ है कि जैसा काम किया चाहते हैं वैसा ही असर सब के चित्त पर पैदा कर देते हैं" मासृर शिंभूदयाल ने मुस्करा कर कहा.

"हरगिज़ नहीं हरगिज़ नहीं, मैं इन्साफ के मामले मैं भाईचारे को पास नहीं आनें देता जिस रीति सै बरतनें के लिये मैं और लोगों को सलाह देता हूं उस रीति सै बरतना मैं अपने ऊपर फ़र्ज़ समझता हूं. कहना कुछ और, करना कुछ और नालायकों का काम है और सचाई की अमिट दलीलों को दलील करनेंवाले पर झूंटा दोषारोप करके उड़ा देनेंवाले और होते हैं,, लाला ब्रजकिशोर ने शेर की तरह गरज कर कहा और क्रोध के मारे उन्की आंखें लाल होगईं.

लाला ब्रजकिशोर अभी मदनमोहन को क्षमा करनें के लिये सलाह देरहे थे इतने मैं एका एक शिंभूदयाल की ज़रासी बात


  1. * निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदिवा स्तु वन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्
    अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥