"उन्का वहां चलनें का क्या काम है? उन्को चार दोस्तों मैं बैठ कर हंसनें बोलनें की आदतही नहीं है वह तो शाम सवेरे हवा खा लेते हैं और दिनभर अपनें काम मैं लगे रहते हैं या पुस्तकों के पत्रे उलट-पुलट किया करते हैं! वह संसारका सुख भोगनें के लिये पैदा नहीं हुए फिर उन्हें लेजाकर हम क्या अपना मज़ा मट्टी करैं?" लाला मदनमोहन ने कहा.
"बरसात मैं तो वहां झूलों की बड़ी बहार रहती है" हकीम अहमदहुसैन बोले.
"परन्तु यह ऋतु झूलों की नहीं है आज कल तो होली की बहार है" पंडित पुरुषोत्तमदास ने जवाब दिया.
"अच्छा फिर कब चलनें की ठैरी और मैं कितनें दिन की रुख़सत ले आऊं?" मास्टर शिंभूदयाल नें पूछा.
"वृथा देर करने सै क्या फ़ायदा है? चलनाही ठैरा तो कल सवेरे यहां सै चलदैंगे और कम सै कम दस बारह दिन वहां रहैंगे" लाला मदनमोहन ने जवाब दिया.
लाला मदनमोहन केवल सैर के लिये कुतब नहीं जाते ऊपर सै यह केवल सैर का बहाना करते हैं परन्तु इन्के जी मैं अब तक हरकिशोर की धमकी का खटका बन रहा है मुन्शी चुन्नीलाल और बाबू बैजनाथ वग़ैरै नें इन्को हिम्मत बंधानें मैं कसर नहीं रक्खी परन्तु इन्का मन कमज़ोर है इस्सै इन्की छाती अब तक नहीं ठुकती यह इस अवसर पर दस पांच दिन के लिये यहां सै टलजाना अच्छा समझते हैं इन्का मन आज दिन भर बेचैन रहा है इसलिये और कुछ फ़ायदा हो या न हो यह अपना मन बहलानें के लिये, अपनें मनसै यह डरावनें विचार दूर करनें के लिये