करके और विरासत के रूप में स्त्री और पुरुष के बीच कानून की नजर मे जो असमानता चिह्न भी नहीं छोड़ती और उसे अपने सारे अधिकार त्याग देने को विवश कर देती है - तो इसमे कानून क्या कर सकता है ! जहा तक विवाह का सम्बन्ध है-प्रगतिशील से प्रगतिशील कानून भी वम इतनी-सी बात मे पूरी तरह संतुष्ट हो जाता है कि दोनो पक्ष जाकर सरकारी दफ्तर में यह दर्ज करा दें कि उन्होंने स्वेच्छा से विवाह किया है। कानून के पर्दे के पीछे जहां अमली जीवन चलता है, वहा या होता है, यह स्वैच्छिक संविदा किस प्रकार सम्पन्न होती है, इससे कानून को या कानून के पडितो को कोई गरज नहीं। और फिर भी, सचाई यह है कि कानून के पंडित यदि विभिन्न कानूनों की पोड़ी-सी भी तुलना देखें, तो उन्हें तुरन्त मालूम हो जायेगा कि इस स्वैच्छिक संविदा का वास्तविक अर्थ क्या है। उन देशो मे जहां कानून के अनुसार यह जरूरी है कि बच्चो को अपने माता-पिता की जायदाद का एक हिस्सा मिले, जहा माता-पिता उनको यह हिस्सा देने से इनकार नही कर सकते - यानी जर्मनी मे , उन देशों में , जहा फासीसी कानून चलता है, आदि मे-वहा सन्तान को विवाह के मामले में माता-पिता की मंजूरी लेनी पड़ती है। जो देश अंग्रेजी कानन के मातहत है , उनमे कानन की दृष्टि से माता-पिता की रजामदी तो जरूरी नहीं है, परन्तु वहा माता-पिता को घसीयत के जरिए अपनी सम्पत्ति किसी के भी नाम लिख देने का, और यदि वे चाहे तो अपनी सन्तान को एक भी पैमा न देने का पूर्ण अधिकार होता है। अतएव यह स्पष्ट है कि जहां तक उन वर्गों का सम्बन्ध है , जिनके सदस्यो को अपने मा-बाप से कुछ सम्पत्ति मिलने को होती है उनमे, इसके बावजूद - बल्कि कहना चाहिए कि इसी कारण से - इंगलैंड और अमरीका मे, की स्वतंत्रता फ्रांस या जर्मनी से जरा भी अधिक नहीं है। विवाहित अवस्था में, पुरुप और नारी को कानूनी समानता के बारे में भी स्थिति इससे अच्छी नही है। पुरानी सामाजिक परिस्थितियो की है, वह स्त्रियों के आर्थिक उत्पीडन का कारण नहीं, बल्कि परिणाम है। पुराने सामुदायिक कुटुम्ब मे, जिसमें अनेक दम्पत्ति और उनकी संतानें शामिल होती थी, स्त्रियां घर का प्रबंध किया करती थी, और यह काम उतना ही महत्त्वपूर्ण , सार्वजनिक और सामाजिक दृष्टि से आवश्यक उद्योग- धधा माना जाता था, जितना कि भोजन जुटाने का वह काम माना जाता विवाह ६२
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