मातृ-सत्ता के नाम से पुकारते है। संक्षिप्तता की दृष्टि से मैं भी इसी नाम का प्रयोग करूगा। परन्तु , यह नाम वहुत उपयुक्त नहीं है, क्योकि समाज के विकास की इस अवस्था मे अभी कानूनी अर्थ मे सत्ता जैसी कोई चीज नही उत्पन्न हुई है। अब यदि पुनालग्रान परिवार के दो ठेठ समूहों में से हम किसी एक को ले , जिसमे सगी तया रिश्ते को बहनें (एक पीढ़ी के अन्तर से, दो या और भी अधिक पीढियो के अन्तर से वंशजायें ) शामिल है और उनके साथ-साथ उनके बच्चे और उनके सगे या मौसेरे भाई (जो हमारी मान्यता के अनुसार उनके पति नहीं होते ) भी शामिल है, तो हम पायेगे कि ठीक ये ही वे लोग है जो बाद में चलकर , अपने प्रारम्भिक रूप मे गोत्न के सदस्य होते है। इन सब लोगो को एक समान पूर्वजा होती है, जिसकी वंशजायें पीढी-दर-पीढ़ी अापम में वहनें होती है, इसी नाते होती है कि वे उसकी वंशजाये हैं। परन्तु इन बहनो के पति लोग अब उनके भाई नहीं हो सकते , यानी वे उसी एक पूर्वज के वंशज नही हो सकते , और इसलिये वे उम रक्तसम्बद्ध समूह के, जो बाद मे गोत्र कहलाने लगा, सदस्य भी नही हो सकते। परन्तु उनके बच्चे इस समूह मे होते है, क्योकि मातृ-परम्परा ही असन्दिग्ध होने के कारण निर्णायक महत्त्व रखती है। जब एक बार ज्यादा से ज्यादा दूर के रिश्ते के मौसेरे भाई-बहनों समेत तमाम भाई-बहनों के यौन-सम्बन्ध पर प्रतिबंध स्थापित हो जाता है, तो उपरोक्त समूह गोत्र में बदल जाता है-यानी, तव वह मातृ-वंशी ऐसे रक्त-सम्बन्धियो का एक बहुत सख्ती के साथ सीमित दायरा बन जाता है, जिन्हें आपस में विवाह करने की इजाजत नहीं होती। और इस समय से ही यह गोत्र सामाजिक एवं धार्मिक चरित्न रखनेवाली अन्य सामान्य सस्थाओं के द्वारा अपने को अधिकाधिक शक्तिशाली और दृढ बनाता जाता है और उसी कबीले के दूगरे गोत्रो से अपने को अलग करता जाता है। बाद में हम इगती अधिक विस्तार से चर्चा करेंगे। परन्तु जब हम पाते है कि गोत्न न केवल अनिवार्यतः, वलि प्रत्यक्षतः भी पुनालपान परिवार में से विकसित होकर निकले है, तो इस बात को भी लगभग पक्का मानने के लिए माघार मिल जाता है कि जिन जातियों मे गोत्रीय संस्थानो के चिह्न मिलते हैं, उन सब में, यानी लगभग मभी यवर तथा सभ्य जातियों में परिवार का यह रूप पर मौजूद था। ५४
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