को-जो हमारी अपनी धारणाओं से बिलकुल भिन्न और प्रायः उनकी उल्टी हैं-अलग कर दें, तो यौन सम्बन्ध का ऐसा रूप रह जाता है जिसे केवल अनियंत्रित ही कहा जा सकता है। अनियंत्रित इस माने में कि उस पर अभी वे बंधन नहीं लगे थे जो वाद में रीति-रिवाजों ने लगा दिये। इसका अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं होता कि यौन सम्बन्धों के मामले में रोजाना गड़बड़ी रहती थी। अस्थायी काल के लिये पृथक युग्मों का अस्तित्व वर्जित न था, बल्कि सच तो यह है कि यूथ-विवाह मे भी अब अधिकतर ऐसे ही युग्म देखने में आते हैं। यदि वेस्टरमार्क की, जो यौन सम्बन्धो के इस पादिम रूप को मानने से इनकार करनेवालों की जमात में सबसे नये शरीक होनेवालो में है, विवाह की परिभापा यह है कि जहां कही पुरुष और नारी बच्चा पैदा होने के समय तक साथ रहते है, वहीं विवाह है, तो कहा जा सकता है कि इस प्रकार का विवाह स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों की परिस्थितियो मे भी आसानी से हो सकता था, और उससे स्वच्छन्दता में, अर्थात् यौन सम्बन्धो पर रीति-रिवाजो के बनाये हुए बंधनों के अभाव की स्थिति में, कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। वेस्टरमार्क निस्संदेह यह दृष्टिकोण लेकर चलते है कि 'स्वच्छन्द यौन सम्बन्धो का अर्थ व्यक्तिगत इच्छाओं का दमन है", और इसलिए "उसका सबसे सच्चा रूप वेश्यावृत्ति है"। 25 इसके विपरीत मेरा विचार यह है कि जब तक हम आदिम परिस्थितियों को चकलाघर के चश्मों से देखना बन्द नहीं करेगे, तब तक हम उन्हे जरा भी नही समझ पायेगे। यूथ-विवाह पर विचार करते समय हम इस बात का फिर जिक्र करेंगे। मोर्गन के अनुसार, स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों की इस आदिम अवस्था से , शायद बहुत शुरू में ही, परिवार के इन रूपों का विकास हुआ था: १. रक्तसम्बद्ध परिवार-यह परिवार को पहली अवस्था है। यहा विवाह पीढ़ियों के अनुसार यूथों में होता है। परिवार की सीमा के अन्दर सभी दादा-दादियों एक दूसरे के पति-पली होते हैं। उनके बच्चों को, यानी माताओं और पितामों की भी यही स्थिति होती है। और उनके बच्चों से फिर समान पति-पलियों का एक तीसरा दायरा तैयार हो जाता है। इनके बच्चे-पहली पीढ़ी के परपोते और परपोतिया-चौये दायरे के पति-पत्नी
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