गुजाइश नही है। इन कारखानों में जो कारीगर अपनी क्षमता का विकाम किया करते थे, बहुत सम्भव है कि वे पूरे समुदाय के लिये काम करते थे, जैसा कि भारत को गोन-व्यवस्था वाले समुदायों के स्थायी दस्तकार आजकल भी करते है। हर हालत में, उस अवस्था मे कबीले के अंदर विनिमय के अलावा किसी और प्रकार के विनिमय के प्रारम्भ होने की सम्भावना नहीं थी और वह विनिमय भी बस अपवादस्वरूप ही था। परन्तु जब पशुपालन कबीलो ने स्पष्ट आकार ग्रहण किया, तो भिन्न-भिन्न कबीलो के सदस्य के बीच विनिमय के प्रारम्भ होने और विकास करने तथा एक नियमित सामाजिक प्रथा के रूप मे समाज में जड़ जमा लेने के लिये सभी अनुकूल परिस्थितिया पैदा हो गयी। शुरू मे एक कवीला दूसरे क़बीले के साथ अपने-अपने गोत्र-मुखियानो के जरिये विनिमय करता था, परन्तु जैसे-जैसे पशुप्रो के रेवड लोगो को पृथक् सम्पत्ति वनते गये , वैसे-वैसे व्यक्तियो के बीच होनेवाले विनिमय का अधिकाधिक प्राधान्य होता गया , यहां तक कि अत मे वही विनिमय का एकमात्र रूप हो गया। पशुपालक कबीले जो मुख्य चीज दूसरे कबीलो को विनिमय मे देते थे, वह थी पशुधन । अतएव पशुधन वह माल बन गया जिसके द्वारा दूसरे सभी मालो का मूल्य मापा जाता था और जिसे हर जगह लोग खुशी से दूसरे मालो के बदले में लेने को तैयार रहते थे, साराश यह कि पशुधन ने मुद्रा का कार्य ग्रहण कर लिया और इस अवस्था मे वह मुद्रा का काम देने भी लगा था। माल के विनिमय के प्रारम्भ मे ही एक विशेष माल - मुद्रा - की ज़रूरत अनिवार्य रूप मे तेजी से महसूस होने लगी। वर्वर युग की निम्न अवस्था के एशियाई लोगों को शायद वागबानी का ज्ञान नही था, पर अधिक से अधिक बर्वर युग की मध्यम अवस्था तक तो वह ज़रूर ही इन लोगो खेती के पूर्ववर्ती के रूप में शुरू हो गयी होगी। तूरान की पहाड़ियों की जलवायु ऐसी न थी कि बिना लंबे और कड़ाके के जाड़े के दिनों के लिये चारे का इन्तजाम किये वहा पशुपालन का जीवन विताया जा सके। इसलिये यहा चारे और अनाज की खेती के विना काम न चल सकता था। काले मागर के उत्तर में जो स्तेपी प्रदेश है, वहां भी यही हालत थी। और जब एक बार जानवरो के लिये अनाज वोया जाने लगा , तो शीघ्र ही वह मनुष्यों का भी भोजन बन गया। खेती की जमीन अब भी कबीले की मम्पत्ति बनी रही और वह पहले गोत्रो २०६
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