1 काल में यह बंटवारा बार-बार हुआ करता था या नहीं, इस बात को हम नहीं जानते। पर इतना निश्चित है कि रोमन प्रातो मे जल्द ही यह प्रथा बंद हो गयी और हर कुटुम्ब का हिस्सा उसकी निजी सम्पत्ति , “एलोडियम", बन गयी। जगल और चरागाहो को नहीं बांटा गया , वे सब के इस्तेमाल के लिए थे। उनके इस्तेमाल और वटी हुई जमीन के जोतने का ढंग प्राचीन रीति के अनुसार तथा पूरे समदाय की इच्छा से तय होता था। गोत्र को अपने गाव मे बसे जितने ज्यादा दिन बीतते गये और समय बीतने के साथ- साथ जर्मन और रोमन लोग आपस में जितने ज्यादा घुलते-मिलते गये , उतना ही रक्त-सम्बन्ध गौण और प्रादेशिक सम्बन्ध प्रधान होता गया। अंततः गोत्र मार्क-समुदाय मे तिरोहित हो गया, पर उसमे सदस्यों के मूल रक्त-सम्बन्ध के पर्याप्त चिह्न दिखायी देते थे। इस प्रकार, कम से कम उन देशों मे , जहा मार्क-समुदायो को कायम रखा गया था - फ्रांस के उत्तर मे और इंगलैंड, जर्मनी तथा स्कैंडिनेविया में - गोन-व्यवस्था धीरे-धीरे प्रादेशिक व्यवस्था मे बदल गयी और इस प्रकार वह इस योग्य बन गयी कि राज्य व्यवस्था के साथ फिट बैठ सके। फिर भी उसका वह स्वाभाविक जनवादी स्वरूप कायम रहा जो पूरी गोन-व्यवस्था की मुख्य विशेषता है , और कालान्तर मे जब वह लाचार होकर पतनोन्मुख हुअा तब भी उसमें गोत्र-संघटन का कुछ अंश जरूर वाकी रहा, जो दलित जनता के हाथ मे एक अस्त्र वन गया और जिसका वह आधुनिक काल मे भी प्रयोग करती है। गोत्र में रक्त-सम्बन्ध के महत्त्व के तेजी से खतम होने का कारण यह था कि कबीले मे और पूरी जाति मे भी विजय के फलस्वरूप गोत्न-निकायों का ह्रास हो गया। हम जानते है कि पराधीन जनो पर शासन करना गोत्र- व्यवस्था से मेल नहीं खाता। यहां यह बात बहुत बड़े पैमाने पर दिखायी पडतो है। जर्मन लोग अब रोमन प्रातो के मालिक थे। उनके लिये अपनी विजय को संगठित रूप देना आवश्यक था। परन्तु रोमवासियो के विशाल जन-समुदाय को न तो गोत्र-संघटन के निकायो में सम्मिलित किया जा मकता था और न इन निकायों की सहायता से उन पर शासन किया जा सकता था। रोमवासियों की स्थानीय प्रशासन-संस्थाएं शुरू मै जर्मन विजय के बाद भी काम करती रही थी, पर यह आवश्यक था कि उनके ऊपर कोई ऐसा संगठन हो जो रोमन राज्य का स्थान ले सके और यह दूसरा १६५
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