. । बड़े पैमाने की खेती में , और न शहरो के कारखानो मे उपयुक्त प्राय होती थी। उसकी पैदावार के लिये वाज़ार का लोप हो गया था। साम्राज्य के समृद्धि काल के विशाल उत्पादन की जगह पर अब केवल छोटे पैमाने की खेती और छोटी-मोटी दस्तकारियां रह गयी थी, और उनमे दासो की बड़ी संख्या के लिए कोई स्थान न था। अब समाज में केवल धनी लोगो के घरेलू कामों को करनेवाले तथा उनकी ऐश-आराम की जरूरतों को पूरा करनेवाले दासो के लिये ही स्थान रह गया था। परन्तु मरणोन्मुख दास-प्रथा अभी भी इतनी शक्तिशाली जरूर थी कि हर प्रकार का उत्पादक काम दास-श्रम मालूम पड़े जिसे करना स्वतंत्र रोमन अपनी शान के खिलाफ समझे-और अव हर कोई स्वतंत्र रोमन गरिक था। इसलिये एक ओर फालतू दासो की संख्या में वृद्धि हो गयी थी और वे भार बन जाने के कारण मुक्त कर दिये जाते थे, और दूमरी ओर coloni तथा भिखारी स्वतनो की संख्या में वृद्धि हो गयी थी (अमरीका के भूतपूर्व दास-प्रथावाले राज्यो के ग़रीब गोरो की तरह )। प्राचीन काल की दास-प्रथा यदि इस प्रकार धीरे-धीरे मर गयी तो इसका ईसाई धर्म को कोई दोष नहीं दिया जा सकता। ईसाई धर्म ने रोमन साम्राज्य में कई सौ वर्ष तक दास-प्रथा से लाभ उठाया था। बाद में जब स्वयं ईसाइयो ने भी दासों का व्यापार करना शुरू किया, जैसा कि उत्तर में जर्मन लोग करते थे, या भूमध्य सागर मे वेनिस के लोग करते थे, या जैसा कि और भी बाद में नीग्रो लोगो का व्यापार होता था, तो ईसाई धर्म ने उसे रोकने की कभी कोशिश नही की। दास-प्रथा लाभप्रद नहीं रह गयी थी, इसलिये वह मर गयी। लेकिन मरते-मरते भी वह जहरीला डंक छोड गयी , यह ठप्पा लगा गयी कि यदि स्वतन्त्र नागरिक उत्पादक काम करेगे, तो वह नीच माना जायेगा। यह थी वह बंद गली जिसमें रोमन संसार फंस गया था: दास-प्रथा का अस्तित्व आर्थिक दृष्टि से असम्भव हो गया था, परन्तु स्वतत्र लोगों के श्रम पर नैतिक रोक लगी हुई थी। पहली अब सामाजिक उत्पादन का बुनियादी रूप नही बनी रह - क्रमोना के बिशप ल्युतप्रांद ने बताया है कि दमवी सदी में वेरदें मे, अर्थात् पवित्न जर्मन साम्राज्य में, प्रधान उद्योग हिजड़े बनाना था, जो मूर लोगो के हरमों के वास्ते बड़े मुनाफे पर स्पेन भेजे जाते थे। (एंगेल्स का नोट) 151 13-410 १६३
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