उनके कथनानुसार रोमन गोत्र अन्तर्विवाही था, वहिविवाहो नहीं। यह मत, जोकि दूसरी तमाम जातियों के अनुभव के खिलाफ़ जाता है, प्रधानतया लिवी के केवल एक अंश पर भाधारित है, जिस पर बहुत विवाद है। लिवी की पुस्तक (खड ३६, अध्याय १६ ) 122 के इस अश मे कहा गया है कि रोम नगर की स्थापना के ५६८ वें वर्ष मे, यानी १८६ ई० पू० में सीनेट ने यह आदेश जारी किया था। , . uti Feceniae Hispallae datio, deminutio, gentis enuptio, tutoris optio item esset quasi ei vir testamento dedisset; utique ei ingenuo nubere liceret, neu quid ei qui eam duxisset, ob id fraudi ignominiaeve esset --"$fitur हिस्पल्ला को अपनी सम्पत्ति को चाहे जिसे दे देने का, उसे कम करने का, गोन के बाहर विवाह करने का और एक अभिभावक चुनने का, उसी प्रकार अधिकार होगा, जिस प्रकार उस हालत में होता यदि उसका" (मृत) "पति वसीयत के द्वारा उसे यह अधिकार दे गया होता; उसे किसी स्वतंत्र नागरिक के साथ विवाह कर लेने की इजाजत दी जाती है और जो पुरुप उसके साथ विवाह करेगा, उसके लिये यह दुराचरण या बेइज्जती की बात नहीं समझी जायेगी। निस्सन्देह यहां फेसेनिया को, जोकि मुक्त हुई दासी है , गोत्र के बाहर विवाह करने की इजाजत दी गयी है। और इसमें भी कोई शक नहीं कि इस अंश के अनुसार पति को यह हक था कि वह वसीयत के द्वारा अपनी मृत्यु के बाद अपनी पत्नी को गोत्र के बाहर विवाह करने की इजाजत दे। परन्तु , प्रश्न है कि किस गोत्र के बाहर? यदि हर स्त्री को अपने गोत्र के भीतर विवाह करना पड़ता था, जैसा कि मोम्मसेन मानकर चलते है, तो वह विवाह के बाद भी उसी गोत्र मे रहती थी। परन्तु , एक तो अभी यही सिद्ध करना बाकी है कि गोन में अन्तर्विवाह की प्रथा थी। दूसरे , यदि स्त्री को अपने गोत्र के भीतर विवाह करना पड़ता था, तो पुरुष के लिये भी यही आवश्यक था, वरना उसे पत्नी प्राप्त नही हो सकती थी। तब इसका मतलब यह होता है कि वसीयत के द्वारा पुरुष अपनी पत्नी को एक ऐसा अधिकार दे सकता था. जिसका उपभोग स्वयं उसे भी उपलब्ध नही था। कानूनी नज़र से १५६
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