हुए। लेकिन किसी न किसी प्रकार यह विकास दिखलाना उनके लिये जरूरी था, अन्यथा यह वात स्पष्ट नही होती थी कि गोत्र क्यो बने। इसलिये वे शब्दो का जाल बुनना शुरू करते है और अन्त में उसी में फंसकर रह जाते है। वे कहते हैं : वंशावली काल्पनिक है, पर गोन वास्तविक है। इस वाक्य के प्रागे वे नहीं बढ़ पाते। और अन्त में प्रोट कहते है - यहा कोष्ठकों के भीतर जो शब्द दिये गये है वे मावर्स के है : - "इस वंशावली की चर्चा बहुत कम सुनने को मिलती है, क्योकि केवल कुछ श्रेष्ठ और सम्मानित मामलो मे ही वशावली की सार्वजनिक रूप से चर्चा की जाती है। लेकिन, अधिक विख्यात गोनों की ही भांति निचले दर्जे के गोत्रो के भी अपने समान कर्मकाड होते है" (कितनी विचित्र वात है यह , मि० ग्रोट ! ), "और समान अलौकिक पूर्वज तथा वंशावली भी होती है" (सचमुच, मि० ग्रोट , यह तो बड़ी विचिन्न बात है, निचले दर्जे के गोत्रो मे भी! ), "सभी गोत्रो मे एक सी व्यवस्था और वैचारिक आधार पाया जाता है" (वैचारिक ideal - नही, जनाव, यह पूरी तरह ऐन्द्रिय - carnal - दैहिक आधार है ! )।" इस बात का मोर्गन ने जो जवाब दिया है, उसे मार्क्स ने संक्षेप में इस तरह पेश किया है : “रक्त-सम्बद्धता की व्यवस्था जो गोत्र के ग्रादि के अनुरूप होती थी- अन्य मनुष्यो की तरह यूनानियों में भी एक समय गोन का यह आदिरूप पाया जाता था-गोन के सभी सदस्यो के पारस्परिक सम्बन्धो के ज्ञान को सुरक्षित रखती थी। इस ज्ञान का उन लोगो के लिये निर्णायक महत्त्व था और यह ज्ञान उन्हे बचपन में ही व्यवहार से मिल जाता था। जब एकनिष्ठ परिवार का उदय हुआ तो यह ज्ञान विस्मृति के अंधकार में पड़ गया। गोन के नाम से जो वंशावली वनती थी, उसके मुकाबले में एकनिष्ठ परिवार की वशावली बहुत छोटी और महत्त्वहीन चीज मालूम पड़ती थी। अब गोत्र का नाम इस बात का प्रमाण था कि यह नाम धारण करनेवाले लोगो के पूर्वज एक थे। परन्तु गोत्र की वश- परंपरा इतनी पुरानी थी कि उसके सदस्यो के लिये अव यह सिद्ध करना सम्भव न था कि उनके बीच रक्त-सम्बन्ध है। केवल वे थोड़े-से लोग ही अपना सम्बन्ध सिद्ध करने की स्थिति मे थे जिनकी समान पूर्वजो से वंशोत्पत्ति बहुत समय पहले नही हुई थी। गोत्र का नाम सुद इस बात १३०
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