परन्तु एक बात में यह मानव अधिकार दूसरे सभी तथाकथित मानव अधिकारों से भिन्न था। दूसरे तमाम अधिकार, व्यवहार में शासक वर्ग तक, यानी पूंजीपति वर्ग तक ही सीमित बने रहे और उत्पीडित वर्ग सै-- सर्वहारा वर्ग से-प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष ढंग से ये अधिकार छीने जाते रहे। पर इतिहास का व्यंग्य एक बार फिर सामने आया। शासक वर्ग अब भी परिचित आर्थिक प्रभावो के वश में रहता है और इसलिये कुछ अपवादस्वरूप उदाहरणो में ही उसके यहां सचमुच स्वेच्छा से विवाह होते है; परन्तु शासित वर्ग में , जैसा कि हम ऊपर देख चुके है, आम तौर पर विवाह स्वेच्छा से होते है। अतएव , विवाह में पूर्ण स्वतंत्रता केवल उसी समय आम तौर पर कार्य- रूप ले मकेगी जव पूंजीवादी उत्पादन तथा उससे उत्पन्न सम्पत्ति के सम्बन्ध मिट जायेंगे और उसके परिणामस्वरूप वे सब गौण आर्थिक कारण भी मिट जायेंगे जो आज भी जीवन-साथी के चुनाव पर इतना भारी प्रभाव डालते हैं। तव आपस में प्रेम के सिवा और कोई उद्देश्य विवाह के मामले मे काम नही करेगा। यौन-प्रेम चूंकि स्वभाव से एकांतिक होता है - यद्यपि यह एकातिकता आज अपने पूर्ण रूप में केवल नारी के लिये ही होती है, - इसलिये , यौन- प्रेम पर आधारित विवाह स्वभाव से ही एकनिष्ठ होता है। हम यह देख चुके हैं कि बाखोफ़ेन तब कितने सही नतीजे पर पहुचे थे जब उन्होंने कहा था कि यूथ-विवाह से व्यक्तिगत विवाह तक की प्रगति का श्रेय मुख्यतः स्त्रियों को है। हां, युग्म-विवाह से एकनिष्ठ विवाह में प्रवेश करने का श्रेय पुरुप को दिया जा सकता है। इतिहास की दृष्टि से इस परिवर्तन का सार यह था कि स्त्रियो की स्थिति और गिर गयी और पुरषों के लिये बेवफ़ाई और आसान हो गयी। जब वे आर्थिक कारण मिट जायेंगे जिनसे स्त्रिया पुरुषों की हस्व मामूत बेवफाई को सहन करने के लिये विवश हो जाती थी- अर्थात् जब स्त्री को अपनी जीविका की और, इससे भी अधिक अपने बच्चों के भविष्य की चिन्ता न रह जायेगी-और इस प्रकार जब स्त्रियो और पुरुषों के बीच सचमुच समानता स्थापित हो जायेगी, तब पहले का सारा अनुभव यही वताता है कि इस समानता का परिणाम उतना यह नही होगा कि स्त्री बहुपतिका हो जायेगी, बल्कि कही अधिक प्रभावपूर्ण रूप से यह होगा कि पुरुष सही माने में एपतीक बन जायेगे। '१०३
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