पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/४७७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

महात्मा गोस्वामी तुलसीदास ५ बिललाने लगे । आप स्वयं कहते हैं, कि "वारे ते ललात बिललात द्वार द्वार दीन जानत हो चारि फल चारिही चमक को । पीछे शूकर क्षेत्र के महात्मा नरहरिदासने आप को अपने प्रबन्ध में लेकर रामभक्ति का उपदेश तथा विद्यादान दिया । दाना- नाथजीकी कन्या से इन का विवाह हुवा। उस के एक दिन भाई के साथ मायके चले जाने से ये भी वहीं पहुँचे और इन को स्त्रेण समझ कर वह मिथ्या लोकलाज में गड कर बोली:- - हाड़मालकी देह मम तामें जितनी प्रीति । होती जो रघुनाथ में तौ न होति भव भीति ॥ ऐसी प्रेमशून्य बात सुन कर उसे छोड़ आप भजनार्थ तुरंत चल दिये, बोले, " हम तौ चाखा रामरस पतनी के उपदेस । " और सीधे शूकर क्षेत्र जा कर अपने विद्यागुरु नरहरिदास के मन्त्रशिष्य भी हो गये । तभी से गोस्वामीजी ने रामभक्ति तथा संत जीवन पर पूर्ण ध्यान दिया अथच रामभक्तिपूर्ण परमोत्कृष्ट उपदेशात्मक साहित्य भी रचा। आप विशेषतया अयोध्या या काशी में रहते थे । वृद्धावस्था में काशी के लोलार्क मठ के महन्त भी हो गये । आप के तीस पैंतीस ग्रंथभी कहे जाते हैं, जिन में से इन की शिष्य परम्परा केवल बारह को तुलसीकृत मानती है। उन में से " रामचरितमानस न कवल इन के वरन हिन्दी के सारे ग्रंथो में श्रेष्ठ है । उस में रामचन्द्र की उपदेशपूर्ण कथा है । इन के पांच छः और ग्रन्थ भी उच्च कोटि के हैं, अर्थात् कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका, हनुमान बाहुक, कृष्णगीतावली बरवै रामायण, जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, आदि । " गोस्वामी जी सगुण मतावलम्बी रामभक्त थे, किन्तु निर्गुण और सगुण मतों में सामंजस्य कह कर उन में आप कोई विरोध नहीं मानते थे । भक्ति का उपदेश आप का परमोच्च साहित्यगर्भित है ।