पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२५५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

Pada 24] : Ascent. १९७ (२४) अनुवाद. जब मन मस्त हो गया तब क्यों बोलें ? हीरा पाकर गाँठ में बाँधाः । उसको बार बार क्यों खोलें ? जब तराजू हलकी थी; तब चढ़ी; जब सम हो गई, तब क्यों तोलें ? सुरति रूपी कलाली मतवाली होकर विना तौल मदिरा पी गई । मानसरोवर पहुँच जाने पर हँस ताल तलैया क्यों ढूँढे ? तुम्हारा साहब घट के ही भीतर है। तुम बाहर नेत्र क्यों खोलते हो ? कवीर कहते हैं कि, हे साधो ! साहब तिल की आड़ में मिल गएं ।