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૮૨ परमार्थसोपान [ Part I Ch. 5 17. KABIR ON THE SUBLIMITY AND INEFFABILITY OF MYSTICAL EXPERIENCE, चुवत अभी रस, भरत ताल जहँ, सब्द उठै असमानी हो 112 11 सरिता उमड़ि सिन्धु को सोखे, नहिं कछु जाय बखानी हो ॥ १ ॥ चाँद सुरज तारागन नहिं वहँ, नहिं वह रैन बिहानी हो ॥ २ ॥ बाजे बजैं सितार बाँसुरी, ररंकार मृदुबानी हो ॥ ३॥ कोटि झिलमिलै जहँ तहँ झलकै, बिनु जल बरसत पानी हो 11811 दस अवतार एक रत राजें, अस्तुति सहज से आनी हो ॥ ५॥ कहै कबीर भेद की बातें, विरला कोड़ पहचानी हो 11 & 11