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३३] सुधाकर-चन्द्रिका। ५२ ताल 1 11 जो कोसों तक लम्बे होते हैं, और किसी के खोदे नहीं होते, किन्तु पृथ्वी के नौची पड जाने से होते हैं। तलाव = तडाग । वार = जिधर देखने-वाला खडा हो, उधर जो किनारा हो। पार पाट का दूसरा किनारा । केति= कितने । मंछ = बडे मत्स्य । बानौ = वर्ण = सदृश। कुरलहिँ = क्रीडहिँ = क्रीडा करते हैं। केवा = कमल । सोन, ढेक, और लेदो प्रसिद्ध ताल के पक्षी हैं, दून को बहुधा लोग खाते हैं । बग = वक = बकुला। मौन = मछलौ ॥ मरजीआ = मर कर जो जीते हैं, अर्थात् जो समुद्र में रत्न निकालने के लिये गोता लगाते हैं (गोता-खोर )। ये जब गोता लगाते हैं, तब मानों मर जाते हैं । फिर जब उतराते हैं, तब मानों जो जाते हैं। इसी लिये मरजीबा कहाते हैं । उस अमरावती में जो ताल के ऐसे तलाव हैं, वे बरने नहीं जाते। तिन का वार पार (कुछ भी) नहीं सूझता है ॥ उन में कितने उज्ज्वल कुमुद (कोई ) फूले हैं । उन को शोभा ऐमी है, जानों गगन (आकाश) में तारे उए है ॥ (उन में पानी लेने के लिये) मेघ उतरते हैं, और पानी ले कर ( फिर आकाश को) चढ जाते हैं। उस समय पानी के साथ जो मेघ-मण्डल में बडे बडे मत्स्य चले जाते हैं, वे बिजली के सदृश चमकते हैं ॥ उन तालावो में सेत (श्वेत ), पौत, और राते (लाल) सब रङ्ग के पक्षी सङ्ग सङ्ग में पैरते हैं (तैरते हैं ) ॥ चकई और चकवा (आपस में ) क्रीडा करते हैं। ये दोनों निशि (रात्रि) के विछोहा (वियोगी) है, इस लिये दिन-हौँ में मिल लेते हैं। (यह कहावत है, कि सन्ध्या होते-हो चकई (= चकवा को स्त्री) और चकवे ( चक्र चक्रवाक ) में वियोग हो जाता है, ताल के इस पार एक दूसरे पार दूसरा एक एक के शोक में रात्रि भर चिल्लाया करते हैं) ॥ सारस उल्लास (अानन्द ) में भरे आपस में क्रीडा करते हैं। और (कहते हैं कि सच्चा) जीना हम लोगों का है, जो एक साथ (पास) मरते हैं। (सारस के जोडे में ऐसौ परस्पर प्रीति होती है, कि यदि एक पकड लिया जाय, तो दूसरा श्राप से आप उस के पास आ जाता है। इस लिये एक के मरने पर दूसरा उसी स्थान पर आ कर अपना भी प्राण गवाँ देता है) ॥ केवा (कमल), मोन, ढेक, वक, लेदो, और जल को भेदने-वाली, अर्थात् जल के भीतर रहने-वाली मछली, ये सब (उन तालावों में ) भर पूर (अपूरि) रहे हैं, अर्थात् भरे पडे हैं । उन तालों में अमूल्य नग (रत्न) भरे हैं, वे दिन-ही में ऐसे बरते हैं, (चमकते हैं ) जैसे दोप। उन तालावों में जो मरजीत्रा (गोता-खोर) हो, मो उस सौप को पावे, जिम में वे नग रहते हैं ॥ ३३ ॥ - -