५० पदुमावति । २ । सिंघल-दोप-वरनन-खंड । [३२ - ३३ 1 =चाल) = कटि सी जिन की कटि हो), सारङ्ग-नयनी (कमल सा जिन के नयन हो), हंस-गामिनी ( हंस को गति सी जिन को गति हो)। और कोकिला-वयनौ (कोकिला सी जिन को बोली हो ) हैं ॥ (ऐमौ पनिहारियाँ ) झुण्ड को झुण्ड सुन्दर पति पति में श्राती हैं, अर्थात् दश दश बीस बीस का झुण्ड, एक साथ पाँती लगा कर, पानी भरने के लिये अाती हैं। उन का सुन्दर भाँति भाँति का (तरह तरह का) गवन (गमन मोहाता है ।(शिर पर) सोने के कलम से चन्द्र-रूपो मुख (और) दिपते हैं (चमकते हैं)। (आपस में ) हसी और केलि से, अर्थात् हमी और विनोद करती हुई, तो जाती हैं । वे नारी (पनिहारियाँ) जिस से आँख लडाती हैं (हेरहिँ), जानों (उसे अपनी) बाँक नयन (तिरछी आँख) से कटारी मार देती हैं (हनहिँ), अर्थात् कटारौ के चोट से जो मन को दुःख होता है, वैसा-हौ उन के देखने से जो हृदय में मदनाग्नि उत्पन्न हो जाती है, उस से मनुष्य के मन को दुःख व्याप्त हो जाता है ॥ काली घटा को पाँति की तरह (मेघावली की तरह) शिर से पैर तक के हैं। उस में (उस काली घटा में ) दशन (दाँत) विजली की तरह चमकते हैं । (वे पनिहारियाँ ) मानौँ काम की मूर्ति हैं, और उन का वर्ण अप्सरा से भी अनुपम ( उत्तम) है। जिस रानी को ऐसी पनिहारियाँ हैं, (नहीं जानते कि) वह रानी ( पद्मावती) किस रूप को होगी ॥ ३२ ॥ चउपाई। ताल तलाउ सो बरनि न जाहौँ। सूझइ वार पार तेहिं नाहीं॥ फूले कुमुद केति उँजिबारे । जानउँ उए गगन मँह तारे ॥ उतरहिँ मेघ चढहिँ लेइ पानी। चमकहिँ मंछ बोजु कइ बानी ॥ पइरहिं पंखि सो संगहि संगा। सेत पौत राते सब चकई चकवा केलि कराहौँ। निसि क बिछोहा दिनहिँ मिलाही कुरलहिँ सारस भरे हुलासा । जिअन हमार मुअहिँ एक पासा ॥ केवा सोन वेंक बग लेदो । रहे अपूरि मौन जल-भेदौ ॥ रंगा ॥ = दोहा। नग अमोल तिन्ह तालहिँ दिनहिँ बरहिँ जस दीप । जो मरजोत्रा होइ तेहिँ सो पावडू वह सौप ॥ ३३ ॥
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