३१ - ३२] सुधाकर-चन्द्रिका। ४९ उस सरो-वर के पाली (नट) के ऊपर, चारो दिशा में, सब वृक्ष ( रूख) अमृत फल के लगे हैं । उस सरो-वर का रूप देख कर, प्यास और भूख गई, अर्थात् चली जाती चउपाई। पानि भरइ आवहि पनिहारी। रूप सरूप पदुमिनी नारौ ॥ पदुम गंध तिन्ह अंग बसाहौँ। भवर लागि तिन्ह संग फिराहौँ । लंक-सिंघिनी सारंग-नयनी । हंस-गाविनी कोकिल-बयनी ॥ आवहिँ अँड सु पाँतिहिं पाती। गवन सोहाइ सु भाँतिहि भाँतौ ॥ कनक-कलस मुख-चंद दिपाहौँ। रहसि केलि सउँ आवहिँ जाही॥ जा सउँ वेइ हेरहिँ चखु नारौ। बाँक नयन जनु हनहिँ कटारौ ॥ केस मेघावरि सिर ता पाई । चमकहिँ दसन बौजु कइ नाई॥ दोहा। मान मयन मूरती अछरौ बरन अनूप । जेहि कइ असि पनिहारी सो रानौ केहि रूप ॥ ३२ ॥ कमल। - - लंक = लङ्क - कटि = कमर । सिंघिनौ = सिंहिनौ। सारँग= सारङ्ग गाविनी = गामिनी। दिपाही = दिपते हैं = चमकते हैं । रहसि = हँसो ठट्टा। चखु = चक्षु = नेत्र । हनहि = मारती हैं। मेघावरि = मेघावलि = मेघ के पति के ऐसा। ता पाई = पैर तक । बौजु = विद्युत = विजली ॥ मयन = -मदन = काम-देव। अकरी अपारा ॥ (जो) पनिहारी पानी भरने आती हैं, उन के रूप का स्वरूप (आकृति) पद्मिनी नारी के ऐसा है, क्योंकि २५वे दोहे में कह पाये हैं कि 'धनि सो दीप जहँ दीपक नारी' ॥ तिन के अङ्ग पद्म-गन्ध (कमल के सुगन्ध) मा गमकते हैं (बसाते हैं), अर्थात् तिन के अङ्ग से पद्म के सुगन्ध का बास पाता है। (जिन नारियों के अङ्ग में पद्म का गन्ध हो, उन्हें पद्मिनी कहते हैं । नारियों का विस्तार से लक्षण, अलाउद्दीन से राघव-चेतन ने जहाँ नारियों का वर्णन किया है, तहाँ पर किया जायगा)। (जिस कारण से ) भ्रमर लगे हुए तिन के संग फिरा करते हैं। वे पनिहारियाँ लङ्क-सिंहिनी (सिंहिनी के 7
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