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४८ पदुमावति । २ । सिंघलदीप-बरनन-खंड । [३१ खंड खंड सौढौ भई गरेरौ । उतरहिं चढहिँ लोग चहुँ फेरौ ॥ फूले कवल रहे होइ राते । सहस सहस पखुरिन्ह कइ छाते ॥ उलथहिँ सौप मोति उतराहौँ । चुगहिं हंस अउ केलि कराहौँ ॥ कनक पंख पइरहिँ अति लोने। जानउ चितर कौन्ह गढि सोने ॥ दोहा। जपर पाल चहूँ दिसा अंब्रित फर सब रूख देखि रूप सरबर कर गइ पिास अउ भूख ॥ ३१ ॥ मानसरोदक = मान-सर का पानी । अउगाह = अवगाह = अथाह । सिला = शिला। अनाई = मँगा कर । गरेरौ = गले के ऐसौ = घुमौत्रा। राते = रक्त = लाल । उलथहिँ = उलटते हैं। उतराहौँ = उतराय श्राती हैं। पदरहिँ पौरते हैं = तैरते हैं। चितर = चित्र । पाल = पालि = पालो तट = किनारा । पित्रास = प्यास = पिपासा ॥ उस अमरावती के सरो-वर के जल को देखा क्या, जानौं अति अथाह समुद्र के ऐसा जल भरा है ॥ जिस का पानी मोती के ऐसा निर्मल है, मानों अमृत को ला कर (श्रानि), कर्पूर से सु-वासित किया है । लङ्का-दीप को शिला अर्थात् सुवर्ण को शिला मंगा कर, उस सरो-वर का घाट बना कर (सुन्दर रचना कर के) बाँधा गया है । खण्ड खण्ड (प्रत्येक भाग ) में घुमौत्रा सौढी भई है, अर्थात् लगी है, जिन से चारो भोर ( लोग ) उतरते चढते हैं ॥ उस सरो-वर में कमल फूले हैं, और लाल हैं। ऐसे कमल हैं जिन में हजार हजार पखुरिओं के छाते (छत्र ) हैं। (जिन कमल के फल में सहस्र पखुरियाँ होती हैं वस्तुतः वे-हौ कमल हैं। अमरकोश में भी लिखा है कि 'सहस्र-पत्नं कमल, शत-पत्त्रं कुशेशयम्', अर्थात् जिस में हजार पत्र हो वह कमल, और जिस में सौ पत्र हो वह कुशेशय कहलाता है ॥ हंस मोप को उलटते हैं, ( जिस से ) मोती उतराय आती हैं। और उन मोतियों को चुगते हैं, और ( आपस में ) केलि को करते हैं ॥ (वे हंस ) अति सुन्दर (अति लोने ) सोने के पक्ष (पंख ) से पैरते हैं । जानौँ गढ कर सोने में चित्र, अर्थात् विचित्र रूप, किया है। ( कवि लोग सुन्दरता के लिये प्रायः सुवर्ण रूपो हंस को ग्रहण करते हैं । नैषध के प्रथम सर्ग में भी लिखा है कि 'स तत्र चित्रं विचरन्तमन्तिके हिरण्मयं हंसमबोधि नैषधः' ) ॥ . ॥