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२६ -३० सुधाकर-चन्द्रिका। ४५ वाटिका का पक्षी नहीं है। यह पहाडौँ में वा ऊँचे सखुए के वृक्षों में बसती हैं। इसौ लिये जान पडता है कि कवि ने छोड दिया है ॥ २६ ॥ चउपाई। साजे बइठक पइग पइग कूआँ बाउरी । अउ पाउँरी ॥ अउरु कुंड सब ठाउँहि ठाऊँ। सब तीरथ अउ तिन्ह के नाऊँ मठ मंडफ चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥ कोइ सु-रिखेसुर कोइ सनिासौ। कोइ सु-राम-जति काइ मसबासौ ॥ कोइ सु-महेसुर जंगम जती । कोइ प्रक परखड देवी सती ॥ कोई ब्रहमचरज पंथ लागे कोइ सु-दिगंबर आहिं नाँगे॥ कोई संत सिद्ध कोइ जोगी। कोइ निरास पथ बइठ बिगौ ॥ दोहा। सेवरा खेवरा बान सब सिधि-साधक अउधूत आसन मारे बइठ सब जारहिँ आतम-भूत ॥ ३० ॥ 1 पग= पग = प्रग पद = पैर। कूत्र = कूप। बाउरी= बावली = वापी । पाउँरी = पोरी = द्वार वा सौढी। मठ = जहाँ विद्यार्थी वा साधु-लोग रहे। मंडफ= मण्डप, जो चारो ओर खुला रहे, केवल ऊपर छाया रहे॥ तपा = तपखी, जो पञ्चाग्नि तापे, वा वृक्ष में उलटे टंग कर धूम पौए, वा और प्रकार से शरीर को कष्ट दे ॥ जपा =जप करने वाले, जो किसी देवता को वश करने के लिये उस के मन्त्र को, श्रासन लगा कर, जपते हैं ॥ सु-रिखेसुर = सु-ऋषीश्वर = ऋषियों में श्रेष्ठ। जो मनुष्यों की शक्ति को उल्लङ्घन कर जाते हैं, दून में साधारण योग्यतानुसार, ऋषि, परमर्षि, महर्षि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि और देवर्षि, ये भेद हैं। वसिष्ठ और विश्वामित्र की लड़ाई में, बडी तपस्या से, तब क्षत्रिय विश्वामित्र ब्रह्मर्षि हुए हैं। दूस की कथा वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड में प्रसिद्ध है ॥ मनिवासी = सन्यासी, जो जीते-ही अपना कर्म-न्यास कर डालता है, अर्थात् मरने पर जो गति के लिये क्रिया कर्म किया जाता है, सो वे लोग जौत-हो कर डालते हैं, और शिखा सूत्र त्याग कर एक दण्ड धारण करते हैं। उस दण्ड को जीवन ॥