२८-२६] सुधाकर-चन्द्रिका । ४३ ( वाटिका ऐसौ फरी है) जानों इन्द्रासन-पुरी (अमरावती) फरौ हुइ है', यह अर्थ करना चाहिए ॥ गरौ दो प्रकार की होती है, एक कडी और खाने में नौरस । दूसरी नर्म और खाने में मौठौ, ऐसौ मौठौ और नर्म गरौ को 'खुरुहुरौ' कहते हैं ॥२८॥ चउपाई। बसहि पंखि बोलहिँ बहु भाखा। करहिँ हुलास देखि कइ साखा ॥ भोर होत बासहिँ चुहिचूहो। बोलहिँ पांडुकि एकइ तूही ॥ सारउ सुश्रा जो रहचह करहौं। कुरहिँ परेवा अउ करबरहीं। पिउ पिउ लागइ करइ पपीहा। तुहौं तुहौं करि गुडुरू खोहा ॥ कुहू कुहू करि कोइलि राखा । अउ भंगराज बोल बहु भाखा ॥ दही दही कइ महरि पुकारा। हारिल बिनवइ अापनि हारा ॥ कुहुकहिँ मोर सोहावन लागा। होइ कोराहर बोलहिँ कागा ॥ दोहा। जावत पंखि कही सब बइठे भरि अवराउँ । आपनि आपनि भाखा लेहि दई कर नाउँ ॥ २६ ॥ हुलास = उल्लास = आनन्द। बासहि = फूलों के सुगन्ध से वास जाती हैं । सारउ = सारा = दूर्वा = दूब । रहचह = चहचह अानन्द के शब्द। कुरहिँ = कुरकुर करते हैं। परेवा = कबूतर = पारावत । करबरहौं = कलबलाते हैं = इधर से उधर उडते हैं । भंगराज =भृङ्गराज । कोराहर = कोलाहल । अक्राउ = अमरावती ॥ उस अमरावती में पक्षी बसते हैं, जो बहु भाषा (अनेक तरह की बोलौ ) बोलते हैं। और शाखा को देख कर ( जिन में पहले कह आये हैं कि 'लाग सब जस अंबित साखा' अर्थात् अमृत फल लगे है) हुलास (मन में आनन्द ) करते हैं ॥ भोर (प्रातःकाल ) होते-हौ चुहिचुहौ ( फूल के रस को खाने-वाली चिडिया इस प्रान्त में प्रसिद्ध है, जिसे बहुत लोग फुलचुही वा फुलसुंघो कहते हैं ) फूल के रस के सुगन्ध से बास जाती हैं । और पाण्डुको ( पेंडुको जो कबूतर के तरह होती है। यह भी इस प्रान्त में प्रसिद्ध है) 'एक बहो' 'एकदू दही' बोलती हैं। इस पक्षी को बोली में ऐसौ-हौ धुनि जान पडती है ॥ सारउ, दूब के ऐसे जो सुश्रा (शुक) है, अर्थात् बडे
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