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२७-२८] सुधाकर-चन्द्रिका। ४१ जिस घडी किसी ने जा कर (सिंघल ) दीप को नगौच किया, अर्थात् जब कोई सिंघल के नगौच पहुँचा, (उस घडी ऐसा समझ पडता है) जानों (वह) श्रा कर कैलास के नगौच हुआ ॥ चारो ओर ( चहुँ पामा ) आम्र-राज के झुण्ड लगे हैं, जो पृथ्वी से उठे हैं, और आकाश से जा कर लगे हुए हैं। सब तस्वरों में (जानाँ) मलय- गिरि (मलय-चन्दन ) लगाया हुआ है। (उन वृक्षों से ) जग में छाँह हो गई, और (सर्वत्र वह छाया) रात्रि हो कर छा गई ॥ वह छाया मलय-समौर (मलय-चन्दन-सहित वायु) से ( ऐसौ) शोभित हुई है, कि तिम के मध्य ज्येष्ठ महीने में भी जाडा लगती है॥ (कवि को उत्प्रेक्षा है कि निश्चय समझो) उसौ छाया से ( संसार में वार वार) रात हो पाती है, और (वही छाया) सब आकाश को हरिअर (हरा) दिखलाती है, अर्थात् उसी छाया का प्रतिबिम्ब पड़ने से सब आकाश हरे वर्ण का हो गया है ॥ यदि घाम को सह कर कोई पथिक (वहाँ) पहुँच जाय, तो (उस का) दुःख भूल जाता है, सुख होता है और स्वस्थता (विश्राम) होती है। जिन्हों ने उस अनुपम छाया पाया, वे फिर (बहुरि ) ( इस संसार में ) श्रा कर इस धूप को नहीं सहते हैं । ऐमा अाम्र-राज का गझिन झुण्ड है, जिस का वर्णन कर अन्त तक नहीं पार हो सकता है। कवि का अभिप्राय है कि जिन वृक्षों के छाया वर्णन में सात चौपाई हो गई उन के वर्णन में तो संभव है, कि एक ग्रन्थ तयार हो जाय ॥ छवो ऋतु (वहाँ) फूलती फरती हैं, जानाँ ( उस द्वीप में ) सर्वदा वसन्त ऋतु है। ऋतुओं में वसन्त ऋतु राजा है, दूस से वसन्त का ग्रहण किया है ॥ २७॥ चउपाई। फरे आँब अति सघन सोहाए। अउ जस फरे अधिक सिर नाए॥ कटहर डार पौंड सउँ पाके । बडहर सो अनूप अति ताके ॥ खिरनी पाकि खाँड असि मोठी। जाउँनि पाकि भवर असि डौठी॥ नरिअर फरे फरौ फरुहुरौ । फरौ जानु इंदरासन-पुरौ ॥ पुनि महुआ चुअ अधिक मिठास्व। मधु जस मौठ पुहुप जस बास्त्र ॥ अउरु खजहजा आउ न नाऊँ । देखा सब राउन अवराऊँ लाग सबइ जस अंबित साखा। रहइ लोभाइ सोइ जो चाखा॥ 6