४० पदुमावति । २ । सिंघलदीप-बरनन खंड। [२६-२७ - होती थी।) (उस के ) घोड-मार में सोरह हजार घोडे हैं, (जिन में बहुत से) श्याम- कर्ण और बाँके घोडे हैं ॥ सिंघल देश के सात हजार हाथी हैं, जानौँ कैलास (शिव- पुरी, परन्तु यहाँ दून्द्र-पुरी) के बली ऐरावत हाथी हैं । (ऐरावत श्वेत हाथी होता है, और उस पर देवताओं का राजा इन्द्र चढता है)॥ (वह राजा) अश्व-पतियों का शिर- मौर कहाता है, गज-पतियों के गज ( हाथी) को अङ्कुश से नवा देता है (अँका देता है), और (मैं उसे ) राजाओं का नरेन्द्र ( मनुष्यों में इन्द्र ), और भू-पतियों का दूसरा इन्द्र कहता हूँ॥ इन्द्र वर्षा का पति है। भू-पतियों को अन्न होने में वर्षा-हौ का भरोसा है। वह विना इन्द्र की कृपा से नहीं होती। दूस लिये इन्द्र बनाया है। 'नर-पती क कहउँ अउ नरिंदू', इस पाठ में , यति-भङ्ग दोष है। यदि 'कह-उँ-अउ ऐसा शब्द को काट कर यति बनावें तो शब्दाबध दोष होता है । ऐसा चक्रवर्ती राजा है कि चारो भाग में (पूर्व, प. उ. द.), (उस का) भय होता है, सब कोई आ कर (उस के सामने) शिर को नवाते हैं (झुकाते हैं ), और उस के आगे ) कोई सरबर नहीं करता है ॥ २६ ॥ चउपाई। जब-हि दीप निअरावा जाई। जनु कबिलास निअर भा आई॥ घन अँबराउँ लाग चहुँ पासा। उठे पुहुमि हुति लागु अकासा ॥ तरिबर सबइ मलय गिरि लाई। भइ जग छाँह रइनि होइ छाई॥ मलय समौर सोहाई छाँहा । जेठ जाड लागइ तेहि माँहा ॥ ओही छाँह रइनि होइ आवइ। हरिअर सबइ अकास देखावइ ॥ पंथिक जउँ पहुँचइ सहि घामू। दुख बिसरइ सुख हाइ बिसरामू ॥ जेइ वह पाई छाँह अनूपा। बहुरि न आइ सहहिँ यह धूपा ॥ दोहा। अस अँबराउ सघन घन बरनि न पारउँ अंत। फूलइ फरइ छव-उ रितु जानउँ सदा बसंत ॥२७॥ निअरावा नगौच किया । घन = झुण्ड = ढेर का ढेर । अँबराउ = श्राम-राज = अच्छे जाति का श्राम । जेठ = ज्येष्ठ महीना। पंथिक = पथिक = राही। सघन = गरिन । छव-उ= छवो। जानउँ= जानाँ = मानौँ । -
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