२५] सुधाकर-चन्द्रिका। ३७ अथ सिंघल-दीप-बरनन-खंड ॥२॥ चउपाई। सिंघल-दौप कथा अब गावउँ । अउ सो पदुमिनि बरनि सुनावउ ॥ बरनक दरपन भाँति बिसेखा । जो जेहि रूप सो तइसइ देखा ॥ धनि सो दीप जहँ दीपक नारौ। अउ सो पदुमिनि दइ अउतारौ ॥ सात दीप बरनइ सब लोगू। एक-उ दौप न ओहि सरि जोगू ॥ दिया-दीप नहिं तस उजिारा। सरन-दीप सरि होइ न पारा ॥ जंबू-दीप कहउँ तस नाही। लंक-दीप पूज न परिछाहौं । दौप-कुंभसथल आरन परा। दीप-महुसथल मानुस-हरा = दोहा। सब संसार पिरिथुमौं आए सात-उ दीप । एक-उ दीप न अतिम सिंघल-दीप समीप ॥ २५ ॥ पदुमिनि = पद्मिनी = पद्मावतौ। बरनक = वर्णक = वर्णन । धनि धन्य । कुभमथल कुम्भस्थल । महुसथल = मधुस्थल । और जब गभसथल यह पाठ है, तब गभसथल = गर्भस्थ ल । पिरिथुमौं = पृथिवी । ऊतिम कवि कहता है, कि अब ( स्तुति-खण्ड के अनन्तर) सिंघल-दीप के कथा को गावता हूँ, अर्थात् कहता हूँ, और उस पद्मिनी (के वृत्तान्त को) वर्णन कर के सुनाता हूँ ॥ वर्णन करने में, यथार्थ बात नहीं प्रगट होतो. ऐसौ यदि कोई शङ्का करे, तहाँ कहते है , कि उत्तम ॥
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