२०] सुधाकर-चन्द्रिका। ३५ चउपाई। सन नउ सइ सइँतालिस अहे। कथा अरंभ बयन कबि कहे ॥ सिंघल-दीप पदुमिनी रानौ । रतन-सेन चितउर गढ पानी ॥ अलउदीन देहिली सुलतानू । राघउ-चेतन कीन्ह बखानू ॥ सुना साहि गढ छैका आई। हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥ आदि अंत जस गाथा अही। लिखि भाखा चउपाई कही ॥ कबि बिआस रस कवला पूरौ। दूरि सो निअर निअर सो दूरौ ॥ निअरहि दूरि फूल जस काँटा। दूरि जो निअरहि जस गुर चाँटा॥ दोहा। भवर भाइ बनखंड सउँ लेइ कवल रस बास । दादुर बास न पावई भलहि जो आछइ पास ॥ २४ ॥ इति असतुति-खंड ॥ १॥ नउ सदू = नव सै। मढूँतालिस = मैंतालीस। अहे = थे। गाथा = कथा इतिहास। बित्रास = व्यास = जो कि कथा पुराण बाँचते हैं। कवला = कमल । गुर = गुड । भवर भ्रमर। दादुर = दर्दुर = मेघा। भलहि = भली-भाँति से = अच्छी तरह से । आछद् = शोभित है। पास = पार्श्व= निकट ॥ जब कथा के प्रारम्भ का वचन कवि ने कहा, अर्थात् जब कवि ने कथा का प्रारम्भ किया, उस समय हिजरी सन् नव से मैंतालिस था (सन् १५४ ० ईशवी ) ॥ अब संक्षेप से वाल्मीकि-मूल-रामायण के ऐसा कथा की भूमिका लिखते हैं, कि सिंघल-दीप मे जो पदुमिनी (पद्मिनी = पद्मावती) रानौ थी, उसे रतन-सेन (राजा रत्न-सेन ) चितउर (चित्रवर) गढ में ले आया ॥ राघव-चेतन ( एक व्यक्ति ) ने उस पद्मावती के रूप का वर्णन दिल्ली के सुलतान (बादशाह) अलाउद्दौन से किया ॥ शाह ( अलाउद्दौन ) ने प्रशंसा को सुना, और आ कर (पद्मावती के लेने के लिये ) गढ (चित्तौर-गढ ) को केक (घेर) लिया। हिन्दू तुरकों में लडाई हुई ॥ इत्यादि आदि से अन्त तक जैसी कथा थो, सब भाषा चौपाई लिख कर कहा है। कोई ‘लिखि दोहा चौपाई कहौ' ऐसा 1
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