२०] सुधाकर-चन्द्रिका। २७ दोहा। - ॥ वेइ सो गुरु हउँ चेला निति बिनवउँ भा चेर । ओहि हुत देखइ पाण्उँ दिरिस गोसाई केर ॥२०॥ उताइल = शीघ्र । खेवा = बोझ से भरी नाव । श्रगुत्रा = आगे। पंथ = राह = मत । भल = अच्छे = श्रेष्ठ = भले । रोमन = प्रसिद्ध । सुरुखुरू = सब के प्रिय। परमन प्रसन्न । मेरए = मिलाए। करनी = करणौ = योग्यता = लियाकत । उघरी= खुली। बरनी वर्णन किया । चेर = चेला = दाम । दिरिम = दृश्य = देखने-योग्य रूप ॥ खेवक रूप जो मोहिंदी (मुहिउद्दीन) जिन का खेवा बहुत शीघ्र चलता है, मैं ने उन को सेवा किया ॥ मोहिंदी के अगुआ, अर्थात् अग्र (गुरु), शेख बुहान हुए, जिन्हाँ ने जिस को (मोहिदी को) (अपने ) पंथ (मत) में लगा कर ज्ञान दिया ॥ तिन के (शेख बुरहान के) अच्छे गुरु अलहदाद (अल्हदाद) थे, जो कि दोन (धर्म) में अर्थात् धर्म के विषय में दुनिया में रोशन (प्रसिद्ध) और सर्व-प्रिय थे ॥ वे ( अलहदाद) सैयद मुहम्मद के चेले थे, जिन्हों ने सिद्ध-पुरुषों के सङ्गम (समाज ) में खेल किया था, अर्थात् बडे बडे सिद्धों को भी अपनी सिद्धाई से छका दिया था ॥ उन को (सैयद मुहम्मद को) दानियाल गुरु ने पंथ (मत ) को दिखाया, तिन्हाँ ने (दानियाल ने) हज़रत खाज खिज़िर को पाया, अर्थात् उन से दानियाल को भेंट हो गई ॥ हज़रत खाज़ खिज़िर उन से (दानियाल से ) प्रसन्न हुए, और जहाँ सैयद राजी (सैयद राजौ हामिद शाह) थे, वहाँ ले जा कर (उन से) मिलाया, अर्थात् दानियाल को सैयद राजौ का शिव्य बनाया ॥ इस प्रकार को गुरु परम्परा में जो मेरे गुरु मोहिदी हैं, उन से जब मैं ने योग्यता को पाई, तब जीभ खुली, और कवि ( मैं ) ने कथा का वर्णन किया ॥ अर्थात् उन के प्रसाद से कवि हुआ, और कथा ( पदमावती का वृत्तान्त ) बनावने की शक्ति हुई ॥ वे मोहिंदी जो हैं, सो मेरे गुरु हैं, मैं (उन का) चेला हूँ, नित्य (उन का) दास हो कर विनय करता है, अर्थात् प्रत्यह उन की स्तुति किया करता हूँ। उन्हों से, अर्थात् उन को जो कृपा थी, उसी के प्रसाद से, ईश्वर का दृश्य रूप देखने पाया, अर्थात् उन्हौं के अनुग्रह से मैं भी सिद्ध हो गया । मुसल्मान लोग मलिक मुहम्मद को निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य परम्परा में कहते हैं। दूसौ लिये मलिक मुहम्मद को चिस्तिया निज़ामिया कहते हैं। निज़ामुद्दीन औलिया -
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।