सुधाकर-चन्द्रिका। ६२५ चित्तौरगढ-रूप दुर्गम वन से रत्न-सेन भौंरा श्रा कर उस का रस लेने-वाला हुआ। पश्चिम का वर और पूर्व कौ कन्या ( इन दोनों की) जोडौ जो (ब्रह्मा ने ) लिखौ वह अलग नहीं हो सकती है। मनुष्य निश्चय कर लाखौँ तयारी करता है, पर ब्रह्मा ने जो रचौ है वह ( बात ) होती है ॥ जो बजते हुए बाजे रण में जिम के मारने के लिये गए थे वे हो फिर ( उसी के ) विवाह-संबन्ध के मङ्गलचार में बजने लगे, अर्थात् देवी गति जानी नहीं जातो कि क्या होगी। किसी कवि ने सच लिखा है कि- गिरौ कलापौ गगने पयोदा लक्षान्तरेऽर्कस्य जलेषु पद्माः । इन्दुर्खिलक्षे कुमुदस्य बन्धुर्यो यस्य मित्रं न हि तन्य दूरे ॥ बरोक के लिये दूस ग्रन्थ का ८३ पृ० देखो । अनिरुद्ध, ऊषा और बाणासुर के लिये दम ग्रन्थ का ४४३-४४४ पृ० देखो। वामन पुराण के ६२ अध्याय में लिखा है कि राजा बलि के रसातल जाने पर उस का पुत्र बाणासुर पृथ्वी में शोणितपुर बनवा कर राज करने लगा ॥ २८६ ॥ इति सूरौ-खण्डं नाम पञ्चविंश-खण्डं समाप्तम् ॥ २५ ॥
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