पदुमावति । २५ । सूरौ-खंड । [२२-२८३ कि उस हीरामणि को बुलाओ, (क्यों कि हीरामणि पण्डित है ) पण्डित से बुराई नहीं होती। (बुलाने के लिये ) श्राज्ञा हुई, (अाज्ञा होते हो) हजारौँ नोकर (बुलाने के लिये) दौडे (और) शीघ्र हीरामणि को ले आए। (नोकरौं ने राजा के) आगे ला कर पिँजडे को खोला, बहुत दिनों का रूसा हुश्रा (हीरामणि पिँजडे से) निकल कर (राजा से) मिला। बहुत प्रकार की स्तुति करते हुए (वह) मिला, (उन स्तुतिओं को सुन कर) राजा के हृदय में शान्ति हुई (क्रोध टंढा हो गया)। जानौँ भाग से जरते हुए के ऊपर पानी पड गया, (राजा का) हृदय फुलवारी हो कर श्रानन्द से भर गया । (हीरामणि से) मिल कर राजा ने हँस कर बात पूछौ कि क्यों (तेरी) शरीर पौलौ हुई और मुंह लाल ॥ तुम चारो वेदों के पण्डित हो, शास्त्र और वेद को पढे हो । (कहो तो सही, ये) जोगी कहाँ चढे हैं, क्यों (दून सब को यहाँ) ला कर गढ को (छिन्न) भिन्न किया, अर्थात् क्यों गढ में सेंध दिलाया ॥ ऋक्, साम, यजुः, और अथर्व ये चार वेद प्रसिद्ध हैं। न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा ( वेदान्त ), सांख्य, और योग ये षट् शास्त्र, और व्याकरण, ज्यौतिष, निरुक्त, कल्प, शिक्षा और छन्द ये षडङ्ग भी कभौं कभी शास्त्र कहे जाते हैं ॥ २८२ ॥ चउपाई। हौरामनि रसना रस खोला। देइ असौस अउ असतुति बोला ॥ इँदर राज-राजेसुर महा। सउँहौं रिस किछु जाण न कहा ॥ पइ जेहि बात हो भलि आगई। सेवक निडर कहइ रिस लागइँ॥ सुश्रा सुफल अबिँरित पइ खोजा। हो न बिकरम राजा भोजा ॥ हउँ सेवक तुम्ह आदि गोसाई। सेवा करउँ जिउँ जब ताई ॥ जे. जिउ दौन्ह देखावा देस। सो पइ जिअ मँह बसइ नरेलू ॥ जो मन सक्रइ एकइ तूं हौ। सोई पंखि जगत रत-मूहौ ॥ दोहा। नइन बइन सरवन बुधौ सबइ तोर परसाद । सेवा मोर इह निति बोलउँ आसिरबाद ॥ २८३ ॥
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