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६१२ पदुमावति । २५ । सूरौ-खंड। [२८१ -२८२ देने-वाला पहले (जिस को) मन से नहीं मानता, अर्थात् जो जडिबा पहले जिस नग को सच्चा नहीं मानता, वही परख कर (उस ) रत्न को गाँठ में बाँध रखता है ॥ रत्न छिपाए से नहीं छिपता, जो पारखी हो सो परख ले। (मो हे राजा) कसौटी पर सोने और कचौरी को कस कर (तब इस रत्न-सेन को अपनी कन्या) भौख दीजिए। चौदहविद्या-नैषध के 'अधौतिबोधाचरणप्रचारणैर्दशाञ्चतस्रः प्रणयनुपाधिभिः । चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः खयं न बेद्मि विद्यासु चतुर्दशखयम्, इस १ मर्ग के ४ श्लोक की टीका में मल्लि-नाथ ने लिखा है कि अगानि वेदाश्चत्वारो मौमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश ॥ अङ्ग = व्याकरण, ज्यौतिष, निरुक्त, कल्प, शिक्षा, छन्द, =६ । ऋक्, साम, यजुः, अथर्व =४ । मौमांसा = १ । न्यायविस्तर = नीतिशास्त्र = १ । पुराण = १ । धर्मशास्त्र = १ । ६+४+१+१+१+१=१४ ॥ ॥ २८१ ॥ चउपाई। होरामनि जो राजइ सुना। रोस बुझान हिअइ मँह गुना ॥ अगिआँ भई बोलावहु सोई। पंडित हुतइँ दोख नहिं होई ॥ भइ अगिआँ जन सहसक धाए। होरामनिहि बेगि लेइ आए॥ खोला आगइँ आनि मॅजूसा। मिला निकसि बहु दिन कर रूसा ॥ असतुति करत मिला बहु भाँती। राजइ सुना हिअइ भइ साँतौ ॥ जानहुँ जरत अगिनि जल परा। होइ फुलवारि रहसि हिअ भरा ॥ राजइँ मिलि पूछौ हँसि बाता। कस तन पौत भाउ मुख राता ॥ दोहा। चतुर बेद तुम्ह पंडित कहाँ चढे जोगिन्ह का पढे सासतर बेद। आनि कौन्ह गढ भेद ॥ २८२॥ हीरामनि हीरामणि शुक। जो = यत् । राजदू = राज्ञा = राजा ने। सुना = सुनद् (श्टणोति) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, प्रथम-पुरुष, एक-वचन । रोम = रोष = क्रोध ।