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२७६-२८० - ] सुधाकर-चन्द्रिका। 1 . (राजा गन्धर्व-सेन के पक्ष-वाले ) कहने लगे कि हम लोग जोगिऔं के ( मतलब को) पा गए, अर्थात् समझ गए, (ये लोग ) एक क्षण में (हमारी सेना के ऊपर) धावा मारा चाहते हैं। जब तक (ये लोग) धावा मारे (तब तक ) ऐसा खेलो कि (धावा न करने पार्वे, इसी बीच में दून की सेना में ) हाथिओं का झुंड पिला दो। जैसे हाथी पिल कर रण के आगे हाँ, वैसे-हो सब लोग साथ में लगे हुए मुठ भेर करो, अर्थात् शत्रुओँ से भिड जाओ। जैसे-ही हाथिौँ का झुंड (रत्न-सेन की सेना के ) आगे आया, वैसे-ही हनुमान ने अपने लंगूर को फैलाया। जैसे-हौ वह झुंड (रत्न- सेन कौ) सेना में जीतने के लिये रण-क्षेत्र में पाया, (वैसे-हो) हनुमान ने सब को लंगूर में लपेट कर (ऊपर की ओर ) चलाया। बहुत टूट कर नव टुकडे हो गए, बहुत जा कर ब्रह्माण्ड में पडे । बहुत अन्तरिक्ष में घूमने लगे, जो लाख थे वे लौख हो गए, अर्थात् लाखौँ हाथो लौख के ऐसे छितिर बितिर हो गए । बहुत समुद्र में जा कर पडे, पडते-हो उन का पता न लगा (कि क्या हो गए )। ( कवि कहता है कि ) जहाँ अभिमान है वही कठिनता पडतो है, अर्थात् घमंडी-हो के ऊपर विपत्ति पड़ती है, (और) जहाँ हमी होती है वहीं (लडाई का) रोग होता है। कहावत है कि 'रोग को जड खाँमौ और झगडे की जड हाँसो'। कवि का अभिप्राय है कि भाट और मन्त्रि ओँ के समझाने पर भी राजा गन्धर्व-सेन ने न माना, घमंड से भरा लडने-हौ लगा, जिस का फल यह हुआ कि जिन हाथिओं का बडा घमंड था वे हनुमान के फैंकने से लौख के ऐसे टुकडे टुकडे हो कर छितिर- बितिर हो गए ॥ २७६ ॥ चउपाई। फिरि आगइँ का देखइ राजा। ईसुर केर घंट रन बाजा॥ सुना संख सो बिसुन जउँ पूरा। आगइँ हनुवंत केर लँगूरा ॥ लौन्हई फिरहि सरग ब्रहमंडा। पतार लोक म्रितमंडा॥ बलि बासुकि अउ इंदर नरंदू। गरह नखत सूरज अउ चंदू ॥ जावत दानउ राकस पुरौ। अहुठउ बजर आइ रन जुरौ ॥ जिन्ह कर गरब करत हुत राजा। सो सब फिरि बरी होइ साजा ॥ जहवाँ महादेवो रन खरा। नारौ घालि आइ पाँ परा ॥ -