२७८-२७६]] सुधाकर-चन्द्रिका । ६०५ (पहले-हौ श्राप से ) कहा कि योगिओं का संग्राम बडा (भयङ्कर ) होता है, (सो देखिए) असूझ बहुत दल होता आता है, अर्थात् असंख्य सेना चली आती है। एक क्षण में मुर्ती की बाजार लगी चाहती है, दल में (लोग ) मरा चाहते हैं, सो जो जीतेगा वही (दल में ) रहेगा। (मन्त्रिौँ को इतनी बात सुन कर) राजा (गन्धर्व-सेन) ने तब क्रोध किया, (दूतने-ही में) रण में श्रा कर अङ्गद ने (लडने के लिये ) पैर को जमाया। पहले जो ( राजा गन्धर्व-सेन के ) पाँच हाथी (अङ्गद को ओर पकडने को) दौडे, अङ्गद ने उन्हें सूंड पकड कर फिराया (और फिरा कर आकाश में फेंक दिया। वे (उड कर ) स्वर्ग को चले गए, फिर न लौटे, वहीं के हो गए । योगी लोग दूस आश्चर्य को देखते रह गए कि वे हाथी फिर नहीं (जमीन पर ) आए। (कवि कहता है कि) योगिओं का ऐसा लडना होता है कि जमीन पर पेर नहीं लगता, अर्थात् योगी लोग आसमान-ही से लड़ते हैं, जमीन पर नहीं उतरते ।। अङ्गद की कथा रामायण में प्रसिद्ध है। ये राम का दूत बन कर रावण को मभा में गए थे, और प्रतिज्ञा की थी कि रावण, मेरे टेके हुए पैर को जौं घमका दो, तो मैं सौता को हार जाता हूँ, राम जी विना लडे लौट जायंगे ॥ २७८ ॥ - चउपाई। कहहिं बात जोगिहिँ हम पाई। खन प्रक मँह चाहत हहिं धाई ॥ जउँ लहि धावहिँ अस का खेलहु। हसतिन्ह केर जूह सब पेलहु ॥ जस गज पेलि होइ रन आगई तस बगमेल करहु सँग लागईं। हसति कि जूह जउहिँ अगुसारौ। हनुवंत तउहिँ लँगूर पसारौ ॥ जउहिँ सो सइन जौति रन आई। सबहि लपेटि लँगर चलाई ॥ बहुतक टूटि भए नउ खंडा। बहुतक परे ब्रहमंडा॥ बहुतक फिरा करहिँ अँतरौखा। अहे जो लाख भए ते लौखा ॥ जाइ दोहा। बहुतक परे समुंद मँह परत न पावा खोज । जहाँ गरब तह बेरा जहाँ हँसौ तहँ रोज ॥ २७६ ॥
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