२७७-२७८] सुधाकर-चन्द्रिका । - प्रासन-संबन्धी नाम हैं। जैसे जिस ने सिद्धासन से हठ-योग सिद्ध किया उस का नाम सिद्ध-नाथ पडा। कहीं कहीं दून के दूसरे नाम भी मिलते हैं। काशी के श्रीरामशास्त्री-भारद्वाज के शिष्य ब्रह्मचारी नृसिंहशर्मा ने मुंबई “कर्नाटक" मुद्रालय में सन् १८८८ ई० में एक "चौरासी-आसन” नाम को पुस्तक छपवाई है। उस में चौरासी श्रासनों के अवान्तर भेद से ८० श्रामन चित्र के साथ दिखलाए हैं। परन्तु ज्योतिषशास्त्र में सिद्ध शब्द से आज कल २४ संख्या लेते हैं। जैनिओँ में चौबीस जिन देव सिद्ध हुए हैं इस लिये जान पडता है कि आज कल प्रचलित ज्यौतिष- ग्रन्थों में 'जिन' या 'सिद्ध' वा 'अर्हत्' से चौबीस का ग्रहण करते हैं । गोरक्ष-पद्धति में भी चौरासी लाख श्रासनों में से ८४ हौ को मुख्य माना है। चतुराशौतिलक्षाणामे कैकं समुदाहृतम् । ततः शिवेन पौठानां षोडशोनं शतं (८४) कृतम् । बहुत लोग दोहे के 'चउरामी सिद्ध' से चौरामौ आसनों के द्वार से जो सिद्ध चरपाई। जोगी धरि मेले सब पाछई। अउरु माल आए रन काछई॥ मंचिन्न कहा सुनहु हो राजा। देखहु अब जोगिन्ह के काजा ॥ हम जो कहा बड ता कर जूझू। होत आउ दर बहुत असूझू ॥ खन एक मँह छरहट होइ बीता। दर मँह छरहि रहइ सो जौता ॥ कइ धौरज राजा तब कोपा। अंगद आइ पाँौ रन रोपा ॥ हसति पाँच जो अगुमन धाए। ते अंगद धरि लँड फिरार ॥ दोन्ह अडारि सरग कह गए। लउटि न बहुरे तहँ के भए ॥ दोहा। देखत रहे अचंभउ जोगौ हसति बहुरि नहिँ आए । जोगिन्ह कर अस जूझब पुहुमि न लागहिँ पाँण ॥ २७८ ॥ जोगौ = योगी। धरि = धृत्वा = धर कर = पकड कर। मेले = मेलदू (मेलयति ) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, प्रथम-पुरुष, सब = सर्वे। पाछ+ = पृष्ठे = पौछ । अउरु = और = अपर। माल = मान = कुश्ती लडने-वाले । श्राए = उपेयुः। बह-वचन। रन =
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