२६८ - २६६] सुधाकर-चन्द्रिका। ५८१ शूर रत्न-सेन (सूर्य) ग्रहण के ऐसा पकड गया, अर्थात् जैसे ग्रहण में राहु से सूर्य पकडा जाता है उसी तरह यह रत्न-सेन भी राजा गन्धर्व-सेन के सिपाहिौँ से पकड गया। आज तपखौ (रत्न-सेन) को गढ के ऊपर चढने में राजा गन्धर्व-सेन ने पकड लिया, तब (वह) सूर (रत्न सेन वा सूर्य) छिप गया। आज जगत (सिंहल-वासिओं) ने तमाशा देखने के लिये तपखौ (रत्न-सेन ) को मारने के लिये तयारी की है। (यह ) सुन कर पार्वती (महादेव के ) पैरों पर पडी (और कहने लगी कि ) हे महादेव जौ चलिए एक घडी (दूस तमाशे को) देखें । (आपस में सलाह कर) महादेव ने भाट का और पार्वती ने भाटिन का रूप बनाया और हनुमान् वीर को संग में ले लिया। श्रा कर, छिप कर देखने लगे कि देखें ( उस ) भाग्यवान् (रत्न-सेन को) कैसौ सच्ची मूर्ति है। राजा गन्धर्व-सेन अपनी असूझ सेना को देख कर (अपने मन में ) गर्व करता है (कि मेरे बराबर बलो संसार में दूसरा कौन है, पर) देव की गति नहीं देखी जाती, न जाने वह किस को जय दे ॥ २६८ ॥ चउपाई। अस बोलई रहा होद तपा। पदुमावति पदुमावति जपा॥ मन समाधि अस ता सउँ लागी। जेहि दरसन कारन बइरागौ ॥ रहा समाइ रूप ओहि नाऊँ। अउरु न सूझ बार जहँ जाऊँ ॥ अउ महेस कह करउँ अदेसू। जेहि प्रहि पंथ दोन्ह उपदेसू ॥ पारबती सुनि सत्त सराहा। अउ फिरि मुख महेस कर चाहा ॥ हई महेस पइ भई महेसौ। कित सिर नावहिँ यह परदेसौ ॥ मरतहुँ लौन्ह तुम्हारइ नाऊँ। तुम्ह चुप कौन्ह सुनहु प्रहि ठाऊँ ॥ दोहा। मारत हइँ परदेसी राखि लेहु प्रहि बेरि। कोइ काहु कर नाही जो होइ जाइ निबेरि ॥२६६ ॥ एतादृश = ऐमा। बोल₹ = बोल। रहा = तस्थौ। होद = हो = भूत्वा हो कर । तपा = तपस्वी। पदुमावति = पद्मावती। जपा = जजाप =जपने लगा। मन = अम=
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६९९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।