२६७ - २६८] सुधाकर-चन्द्रिका। ५७८ - - सुनूं, तहाँ उस के नाम पर दूस जीव को नैवछावर करूँ। शरीर में जितने रक्त के बिन्दु हैं (सब ) पद्मावती पद्मावती कहा करते हैं। (मेरो शरीर में ) रहें तो (उन रक्त के ) बूंद बूंद में ( उस के लिये) स्थान है, (जमीन पर) पड़ें तो उसी के माम को ले ले कर, अर्थात् भूमि पर गिरें तो उसी के नाम को ले ले कर गिरें । शरीर के रोएँ रोएँ उसी से बंध गए हैं, (मेरे) जीव का (भी) सूत सूत उसी से शुद्ध हुए हैं। (मेरे) हाड हाड में वही ( पद्मावती के नाम का) शब्द होता है, नस नस में वही ( पद्मावती के नाम को) धुनि उठती है ॥ उसका ( पद्मावती का) विरह मांस को खानि के गुद्दे को खाय गया, अर्थात् हाड और नम के भौतर मांस को गुद्दी को खा गया, मैं साँचा ऐसा रह गया अब (उम साँचे में ) उस का रूप समाय गया, अर्थात् मेरे ठठरो-रूप माँचे में उस का रूप ढारा गया अब वह और मैं दोनों मिल कर एक हो गया, उम के और मेरे रूप में अभेद हो गया। जैसे योगी मुक्त हो कर परब्रह्म में लीन हो जाता है, उसी तरह मैं उस में और उसका रूप मुझ में लीन हो गया है ॥ २६७ ॥ चउपाई। जोगिहिँ जउहिँ गाढ अस परा। महादेबो कर आसन टरा ॥ अउ हँसि पारबती सउँ कहा। जानहुँ सूर गहन अस गहा ॥ अाजु चढइ गढ ऊपर तपा। राजइँ गहा सूर तब छपा ॥ जग देखइ कउतुक कइ आजू। कीन्ह तपा मारइ कहँ साजू ॥ पारबती सुनि पाँरन परी। चलहु महेस देखहिँ एक घरौ ॥ भेस भाट भाटिन कर कौन्हा । अउ हनुवंत बौर सँग लौन्हा ॥ अाइ गुपुत होइ देखन लागे। दहुँ मूरति कस सती सभागे ॥ दोहा। कटक असभ देखि कइ (आपनि) राजा गरब करे। दइउ क दसा न देखिअइ दहुँ का कहँ जइ देइ ॥ २६८ ॥ जोगिहि योगिनाम् = योगिनों को। जउहि = यदा हि = जैसे हो। गाढ = कठिन (दुःख) । अस = एतादृश = ऐसा । परा = पपात = पडा । महादेत्रो = महादेव ।
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