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५७० पदुमावति । २8 । मंत्रौ-खंड । [२६३ - २६० दूस तरह से वह योगी परकायप्रवेशविद्या से श्रमर हो गया। काल (प्राण लेने के लिये ) तुम्हारे और उन के (रत्न-सेन के ) पास पाता है (पर आप लोगों का यथार्थ रूप न पा कर) लौट कर चिन्ता करता है, अर्थात् झंखता है कि यम-राज कौ श्राज्ञा से प्राण लेने के लिये पाया पर यहाँ रूप मिलता ही नहीं, अब क्या करूं, और कहाँ ढूँढू ॥ २६३ ॥ चउपाई। सुनि जोगी कइ अम्मर करनी। नेउरौ बिरह-बिथा कइ मरनी ॥ कवल-करी होइ बिगसा जीज। जनु रबि देखि छूटि गा सौज ॥ जो अस सिद्ध को मारइ पारा। नीऊ रस त जो होय छारा॥ कहउ जाइ अब मोर सँदेसू । तजहु जोग अब होहु नरेलू ॥ जनि जानहु हउँ तुम्ह सउँ दूरौ। नइनहिँ माँझ गडी वह सूरौ ॥ तुम्ह परसेत घटइ घट केरा। मोहिँ जिउ घटत न लागइ बेरा ॥ तुम्ह कहँ राज-पाट मइँ साजा। अब तुम्ह मोर दुअउ जग राजा ॥ दोहा । जउँ रे जिअहिँ मिलि केलि करहिं मरहिँ तो एकइ दोउ। तुम्ह पित्र जिउ जनि होउ किछु मोहिँ जिउ होउ सो होउ ॥ २६४ ॥ इति मंत्री-खंड ॥२४॥ सुनि = श्रुत्वा = सुन कर। जोगौ = योगी। कदू = कौ। अम्मर = अमर । करनौ करणौ = कर्म। नेउरौ = नेउरदू (निवरति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । बिरह बिथा = विरह-व्यथा = विरह की पीडा। मरनौ=मरण = मृत्यु। कवल-करी कमल-कली = कमल की कली। होद = हो कर = भूत्वा । बिगमा = विगसद (विका- पाते ) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, एक-वचन । जौऊ =जीव = प्राण। जनु = जाने हं= जानौँ । रबि= रवि = सूर्य । देखि = दृष्टा = देख कर । कूटि गा = छूट गया। मौऊ शौत ठंढक । श्रम ऐसा = एतादृश । सिद्ध -सिद्ध-पुरुष, चाहे सो कर डाले। को= को = कौन। मार =मारे (मारयेत् )। पारा= पारद = तुङ्गबौज । जानता