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२६३] सुधाकर-चन्द्रिका। ५६९ जान व्यथा = = उसके । घट मध्य छाया = धूप घाम। अउ= अपि च = और। मौऊ = शौत= ठंढक । जानु =जान (जानाति) जानता है। पद् = अपि = निश्चय । भोग = सुखसामग्री। मिला मिल (मिलति) का भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । वह = उस में। जाई =जा कर (यात्वा)। श्रोहि कई = उस को। बिथा पौडा। तुम्ह कहँ = तुम को। श्राई श्रावद (आयाति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन। श्रोहि शरीर । माँहा = माँह काल = प्राण निकालने-वाला यम-दूत । कहाँ = कुत्र । पावद् = पावे ( प्राप्नुयात् ) । छाँहा = छाँह परछाहीं॥ अस = ऐसा = एतादृश । जोगि = योगी = जोगी। अमर = जो मरे न। परकाया = परकाय = दूसरे को शरीर । परबेसु= प्रवेश । श्रावद श्रायाति अाता है। तुम्हहिं- तुम्हें। तिन्ह = तिन्हैं। फिरि कदू = फिर कर = लौट कर । कर = करोति करता है। प्रदेसु = अदेश = अंदेसा = चिन्ता ॥ (हीरामणि ने कहा कि) रानी तुम्हारा शपथ है, तुम्ह गुरु और वह (रत्न-सेन) तुम्हारा चेला है। श्रान शपथ के अर्थ में तुलसौ-दास ने भी अयोध्याकाण्ड में लिखा है- 'सपथ तुम्हार भरत कद आना। हेतु न दूलर मैं कछु जाना' । (उसे ) नया सिद्ध कर (अब) मुझ से पूछौ हो। श्राप (उम) चेले के ऊपर प्रसन्न हुई, (महादेव के) मण्डप में (उसे ) दर्शन दे कर चली गई। उस चेले ( रत्न-सेन ) ने तुम्हारे रूप को देखा, (देखते ही वह रूप) चित्त में समाय कर तमबोर हो कर (भौतर) पैठ गया। भाप ( उस का) जीव निकाल कर (उस मण्डप से) हट गई, (अब) वह (रत्न-सेन) तो शरीर हुश्रा और श्राप ( उस शरीर का जौव) हुई। शरीर में जो धूप और शौत लगते हैं उन्हें शरीर नहीं जानती निश्चय कर जीव जानता है, अर्थात् प्राण ही धूप और शौत का अनुभव करता है जड शरीर को धूप-शौत का कुछ भी ज्ञान नहीं । तुम्हारा भोग- विलास जा कर उसे मिला और उस को वह पीडा तुम्हारे यहाँ चली आई। तुम्ह उस को शरीर में और वह तुम्हारी शरीर में है, अर्थात् परकायप्रवेशविद्या से तुम्ह उस को देह मैं और वह तुम्हारी देह में प्रवेश कर गया है, (इस लिये ) काल उस की परछाही भौ कहाँ पावे, अर्थात् वह रत्न-सेन योगी परकायप्रवेश विद्या से तुम्हारे ( परब्रह्मा-खरूप रूप) में लीन हो गया, दूम लिये अब काल उम के प्रतिबिम्ब को भी नहीं पा सकता। वह अजर अमर ब्रह्मगुफा में पैठ कर ब्रह्म-रूप हो गया, वहाँ पर काल को गति ही नहीं फिर वह बेचारा कैसे उस को छाया को पा सकता है। 72