५६८ पदुमावती । २४ । मंत्री-खंड । [ २६२ -२६३ भेद कह दे । अर्थात् चेला उस सिद्धि को तभी पा सकता है जब निष्कपट हो सर्वनाश कर गुरु की शरण में आवे और गुरु उसे शुद्ध समझ कर कृपा कर उस सिद्धि मिलने के उपाय को ठीक ठीक बता दे ॥ २६२ ॥ चउपाई। अनु रानौ तुम्ह गुरु वह चेला। मोहिँ पूँछेहु कइ सिद्ध नवेला ॥ तुम्ह चेला कह परसन भई। दरसन देइ मँडफ चलि गई ॥ रूप तुम्हार सो चेलइ डौठा। चित समाइ होइ चितर पईठा ॥ जौउ काढि तुम्ह लेइ उपसई। वह भा कया जौउ तुम्ह भई ॥ कया जो लागु धूप अउ सौज। कया न जानु जानु पइ जौज ॥ भोग तुम्हार मिला वह जाई। ओहि कइ बिथा सो तुम्ह कहँ आई ॥ तुम्ह अोहि घट वह तुम्ह घट माँहा। काल कहाँ पावइ अोहि छाँहा ॥ दोहा। वह जोगि अस अमर भा पर-काया परवेसु। आवइ काल तुम्हहिँ तिन्ह ( देखे ) फिरि कइ करइ अदेसु ॥२६३॥ श्रनु =ान = शपथ = कसम अणक । रानी=राज्ञौ। तुम्ह = श्राप । गुरु = उस्ताद। वह = सः । चेला = शिष्य । मोहि = मुझ से। पूंछड़ = पूँछद् (पृच्छति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, बहु-वचन । कदू = कर = कृत्वा । सिद्ध = सिद्ध पुरुष, जो चाहे सो कर डाले। नवेला = नवल = नया। कह = को, यहाँ से । परसन = प्रसन्न = खुश । भई = हुई (बभूविथ)। दरसन = दर्शन । देव = दत्त्वा = दे कर। मंडफ = मण्डप । चलि गई = चली गई। रूप = सूरत। तुम्हार = श्राप का। सो = वह = स: । चेल = चेला ने। डौठा = देखा = दृष्टिगोचर किया = ददृशे । चित= चित्त । समादू = समेत्य समाय कर। हो = हो कर = भूत्वा। चितर = चित्र = तसबीर। पठा= पठा= -पैठा पठद (प्रविशति) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, एक-वचन । जीउ =जीव = प्राण । काढि कर्षयित्वा =खौंच कर । ले= ले कर (श्रालाय)। उपसई = उपसमर्प =उपससार = चलो = हट गई। भा = बभूव = हुआ। कया = काय = शरीर । भई = होद (भवति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । लागु = लाग = लाग (लगति)= लगता है। गई
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