२६२ सुधाकर-चन्द्रिका। । कह = कह कथय । सोई = साऽपि = वह, यहाँ उसे । पर-काया = परकाय = दूसरे को शरीर। परबेस = प्रवेश = जाना। होई = होय (भवेत् )। पलटि = परिवर्त्य = उलट कर। पंथ = पन्थाः = राह। बिधि = विधि रौति = प्रकार। खेला= खेल = क्रीडा। चेला -शिष्य। गुरू = गुरु । होद = होदू = हो = भवेत् । खंड = खण्ड = भूमि-खण्ड। अस =ऐसा = एतादृश। रहा = रहदू (रहति वा तिष्ठति) का भूत काल, पुंलिङ्ग, एक वचन । लुकाई = लुका कर = लुक्कायित हो कर = छिप कर । श्रावद् = श्रायाति श्राता है। काल = प्राण लेने वाला यम-दूत । हेरि = हिण्डित्वा = हेर कर = ढूँढ कर। फिरि जाई = फिर जाता है = प्रयाति = लौट जाता है । मिद्धि = अणिमादि अष्ट सिद्धि, जिन से जो चाहे सो कर ले। पावई = पावद = प्राप्नोति = पाता है। सउँ= सत् = से। करदु = करे = कुर्यात् । उछेद = उच्छेद = नाश = सर्वनाश । जउँ= यदि जो। किरिपा= कृपा = दया। कहद = कथयति = कहता है। चेलहि= चेक्षा को। भेद = मर्म बात = हाल ॥ हीरामणि ने जो यह पिछले दोहे में बात कही (कि सूर्य का ग्रहण हो गया, अर्थात् रत्न-सेन पकड गया, तो) सूर्य के ग्रहण होने से, अर्थात् रत्न-सेन के पकड जाने का वृत्तान्त सुनने से, फिर चन्द्र (पद्मावती) भी ग्रस्त हो गई। सूर्य के दुःख चन्द्रमा में जो दुःख हुआ, उस दुःख को कर-मुखौ (सूर्य) क्यों माने, अर्थात् ग्रस्त सूर्य ( रत्न-सेन ) को क्या मालम कि मेरे दुःख से चाँद ( पद्मावती) के ऊपर कैसा वज्रपात के ऐसा दुःख पडा है। (पद्मावती कहने लगी, कि) यदि मेरे स्नेह से योगी (रत्न-सेन) मर जाय तो मेरा और उस का साथ यहाँ पृथ्वी और आकाश दोनों स्थानों में रहेगा। यदि पृथ्वी पर वह योगी (रत्न-सेन ) रहे तो जन्म भर (उस को) सेवा करूँ (यदि परलोक में) चले तो यह मेरा प्राण पखेरू भी (उस के ) साथ चलेगा। वह कौन सी क्रिया है जिस से परकाय में (प्राण का) प्रवेश हो, उस क्रिया को हे गुरु (शुक) कह, अर्थात् बताव । किस तरह से खेल अर्थात् काम किया जाय और वह कौन पथ है जिस से पलट कर चेला गुरु और गुरु चेला हो जाय । ऐसे कौन भूमि-खण्ड में (वह रत्न-सेन ) लुका रहा है, जहाँ कि काल पाता है और ढंढ कर (लाचार हो कर न पाने से ) लौट जाता है | वहीं चेला सिद्धि को पाता है जो कि गुरु से सर्वनाश करता है अर्थात् गुरु के उपदेश से सब विनों का नाश करता है। गुरु यदि कृपा करे तो चेला से सब
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