२६० ] सुधाकर-चन्द्रिका। ५६३ दूसरी तरफ पानी है (क्या करूँ किधर जाऊँ)। तुम मेरे गुरुदेव खेवक हो, इस रीति से खेो जिस में (दूस विरहसागर के) पार उतर जाऊँ । (तुम ने सुना होगा कि) सूर्य (रत्न-सेन ) उदयाचल ( गढ) पर चढते भूल गया, (अब) ग्रहण में पकड गया (दूसौ से ) कमल ( मैं ) कुम्हिला गया, इसौ कारण मैं रहट हो कर भी सूख कर मर रही है, अर्थात् दिन रात आँसू के जल से नहा रही हूँ तो भी सूख कर मरती है, जैसे जल के भीतर रह कर भौ सूर्य के विना कमल मुरझा जाता है। यह अच्छा मरना है (जो प्रियतम के) नगौच में रह कर भी दूर पर हूँ, अर्थात् अलग हूँ। घट (शरीर) में नगौच हो मेरुदण्ड रहने पर भी (उस का मिलना) कठिन हो गया। (गुद-मूल से शिर तक शरीर में पौठ की ओर जो एक हड्डी चली गई है उसी में लगा हुआ भीतरौ ओर मेरुदण्ड है दूसौ में छ कमल हैं। यदि योगाभ्यास से मेरुदण्ड को ठीक ठीक पहचान कर प्राण उन कमलों में चढ जाय तो फिर सिद्ध हो कर अमर हो जाना सहज है।) ऐसा फेर पड गया है कि मिलने पर भी (वह मेरुदण्ड, अर्थात् रत्न-सेन ) नहीं मिलता है।) जैसे हंस ने दमयन्ती और नल को मिला दिया (ऐसे ही तुम मुझे राजा रत्न-सेन से मिला दो) तब तो हीरामणि तुमारा नाम कहने योग्य (नहीं तो काच से भी अधम तुमारा नाम समझंगो)। विदर्भ देश के राजा भीम-सेन को कन्या दमयन्ती थी और निषध देश का राजा नल था । नल ने अपने बाग के तडाग में एक विचित्र हंस को देख कर पकड लिया। उस के रोने पर करुणा में श्रा कर छोड दिया। छुटने पर हंस ने प्रसन्न हो कर कहा कि राजा श्राप ने दया कर जो मुझे छोड दिया इम के में मैं जगत्-सुन्दरौ दमयन्तौ से आप का विवाह करा दूंगा। फिर हंस ने दमयन्ती के यहाँ जा कर नल की प्रशंसा कर बडे उद्योग से दोनों को मिलाया। दूम की कथा भारत और श्रीहर्षरचित नैषध काव्य में विस्तार से लिखी है। जिस समय नल से बिदा हो कर हम दमयन्ती के यहाँ चलने लगा है, उस समय नल के आशीर्वाद को कविता श्रीहर्ष ने नैषध में ऐसौ की है- तव वर्त्मनि वर्त्ततां शिवं पुनरस्तु त्वरितं समागमः । अयि साधय साधयेप्सितं स्मरणीयाः समये वयं वयः ॥ ( पद्मावती विलपती है कि ) सञ्जीवनी मूली (राजा रत्न-सेन ) दूर है (और यहाँ पर मुझे) इस तरह से शक्ति-वाण, अर्थात् शक्ति-माल रही है, (अरे हीरामणि ) प्रत्युपकार
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