२५७ - २५८] सुधाकर-चन्द्रिका। ५५७ आँख खोलौ और कोयल ऐसौ विरह वचन बोली। कमल मैं अर्थात् मेरे में जैसौ जैसी विरह व्यथा बढने लगी (वैसा वैसा मेरी देह का) रंग केशर सा होता गया, (अब) हृदय में गाढी पिराई (छा गई ) है। यदि दिन ही मैं निश्चय कर ग्रहण ने सूर्य को ले लिया, अर्थात् यदि दिन में सूर्य को ग्रहण से अदृश्य होना था, तो क्याँ कमल (मेरे ) में प्रेम का अङ्कुर उत्पन्न हुआ। पुरदूनि (धाओं) को छाया में ( सुख से) कमल-कलौ (मैं) थी, (उस कौ) तुम ने सब आशा और कान्ति को हर लिया, अर्थात् तुम ने उस सूर्य रत्न-सेन का नाम सुना कर, मेरे में प्रेमाङ्कुर पैदा किया फिर उस सूर्य रत्न सेन को अदृश्य कर अब मेरी सब आशा और कान्ति नष्ट कर डाली। गम्भौर पुरुष (कभी) किसी से नहीं बोलते अर्थात् किसी को वचन नहीं देते, और यदि देते हैं, तो निर्वाह करते हैं अर्थात् वचन दे कर उस का पालन करते हैं, तुम ने वचन दिया है मुझ को उस सूर्य रत्न-सेन का दर्शन करात्री ॥ इतनी बात मुख से कहते कहते ( पद्मावती) फिर बेहोश हो गई, (कुछ देर में) उसो (बात) को बकते और उमौ (रत्न-सेन के नाम) को मुख से लेते फिर अपने होश को सँभाली, अर्थात् फिर होश में आई ॥ २५७ ॥ चउपाई। अउरु दगध का कहउँ अपारा। सुनइ सो जरइ कठिन असि झारा॥ होइ हनिवंत बइठ हइ कोई। लंका डाहि लागु तनु सोई ॥ लंका बुझौ आगि जउँ लागौ। यह न बुझइ तस उपज बजागौ ॥ जनहुँ अगिनि के उठहिँ पहारा। वेइ सब लाहिँ अंग अँगारा ॥ कॅपि कपि माँसु सुराग पुरोगा। रकत कि आँसु माँसु सब रोत्रा ॥ खन एक मारि माँसु अस मूंजा। खनहिँ जिआइ सिंघ अस गूंजा ॥ यह रे दगध हुति उतिम मरोजिन। दगध न सहिअ जीउ बरु दौजिज ॥ दोहा। जहँ लगि चंदन मलइ-गिरि अउ सागर सब नौर। सब मिलि आइ बुझावहिँ बुझइ न अागि सरीर ॥ २५८ ॥
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