२५६ - २५७] सुधाकर-चन्द्रिका । ५५५ - - कारण कवि ने 'उदधि समुंद' का प्रयोग किया है। यहाँ उदधि से समुद्र ग्रहण करने से पुनरुक्ति दोष होता है इस लिये उदधि से 'सुन्दरपानौ-वाला' यही अर्थ करना चाहिए। दूम अच्छे (समुद्र) में लहर पर लहर दौडती है, अर्थात् उठती है, भौंर में पडा जौ थाह नहीं पाता है। ( पद्मावती कहती है, कि) हे सखि विष ला कर दे दे तो मर जाऊँ (जिस से ) पेट में जी न रहे, (क्योंकि उसी जौ के रहने के ) डर से डरती हूँ, अर्थात् जब तक पेट में जो है तब तक यह डरा करता है और उसी के डर से मैं भी डरती हूँ। एक क्षण में जो उठता है, अर्थात् होश में आ जाता है दूसरे क्षण में (विरह सागर में ) डूब जाता है, अर्थात् बेहोश हो जाता है। इस तरह से (हे सखि ) हृदय-कमल में बहुत-ही कष्ट है। (हे सखि) (विरह ) ग्रहण जी लेता है। (शीघ्र ) हीरामणि (क) को बुलाभो ॥ २५६ ॥ चउपाई। पुरइनि धाइ सुनत खन धाई। होरामनिहि बेगि लैइ आई ॥ जनहुँ बइद ओखद लेइ आवा। रोगिया रोग मरत जिउ पावा ॥ सुनत असौस नइन धनि खोलौ। बिरह बइन कोइल जिमि बोली ॥ कवलहि बिरह बिथा जसि बाढी। केसरि बरन पिअरि हिअ गाढी ॥ कित कवलहि भा पेम अँकूरू। पड़ गहन लौन्ह दिन सूरू ॥ पुरइनि छाँह कवल कइ करौ । सकल बिभास आस तुम्ह हरौ ॥ पुरुख गंभौर न बोलहिँ काहू। जउँ बोलहिँ तउ अउरु निबाहू ॥ दोहा। प्रतना बोल कहत मुख पुनि होइ गई अचेत । पुनि कइ चेत सँभारी उहइ बकत मुख लेत ॥ २५७ ॥ पुरनि = पर्णिनौ=जल का पुष्प विशेष जिस के पत्र चारो ओर से जल को छिपाए रहते हैं। धादू = धाई = धात्री = बचपन में दूध पिलाने-वालौं । सुनत = सुनते-हो। खन = क्षण । धाई = धावद (धावति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, बहु-वचन ।
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