५५० पदुमावति । २8 । मंत्री-खंड। [२५४ - भा=भया = बभूव = प्राकाश= खोला = खोल = खोल (खोलति)= खोलता है। खनहिँ = क्षण में। जीभ = जिहा । मुह। जादू = याति = जाती है = निकलती है। बोला= बोल = बोली = बात । बजर = वज्र । बानन्ह = बान (वाण) का बहु-वचन । मारा = मार = मार (मारयति) = मारता है। कपि कपि = कम्पयित्वा कम्पयित्वा = कँप कँप कर। नारि = नारी ( पद्मावती)। मरद = मरति= मरती है। बिकरारा = विकराल भयङ्कर ॥ कसेह = कथमपि = कैसेह किसी तरह से। छाडदू = छोडता है = छन्दति । हुा। ससि = शशि चन्द्र। गहन = = ग्रहण । गिरास ग्राम । नखत = नक्षत्र । चह दिसि = चतुर्दिक्षु = चारो दिशा । रोहि = रोदन्ति =रोती हैं। अधिषर = अधिभार = अन्धकार = अंधेरा । धरति धरती= धरित्री। अकास श्रास्मान ॥ कोई कुमुदिनौ (मखिलं ) हाथ से ( पद्मावती के) पैर को छू रही हैं (कि ठंढा तो नहीं हो गया), कोई शरीर पर मलय-चन्दन को छिडक रही हैं। कोई मुंह में ठंढा पानौ चुभा रही हैं, कोई (अपने ) आँचर से हवा कर रही हैं। कोई मुँह में अमृत, अर्थात् संजीवनी जडो को निचोड रही है, (वह औषधि ऐसी हो गई) जानों विष दिया गया, वह धन्या (पद्मावती) और भी सो गई, अर्थात् बेहोश हो गई। मखिौं क्षण क्षण पर साँस देखती हैं, कि कब जौ पाता है और पवन पक्षौ (का संयोग होता ) है, अर्थात् देखें कब शरीर में प्राण फिर कर पाता है। ( पद्मावती के ) हृदय में विरह काल हो कर पैठ गया है, जी को निकाल कर, हाथ में ले कर बैठा हुआ है। एक क्षण में मुट्ठी को बाँध लेता है (तब पद्मावती बेजोव की हो जाती है), एक क्षण में (मुट्ठी को) खोल देता है (तब पद्मावती को साँस कुछ चलने लगती है), एक क्षण में मुख को जीभ से कुछ बोली नहीं बोली जाती, अर्थात् एक क्षण में जीभ ऐंठ जाती है, मुँह से बोली नहीं निकलती। एक क्षण में (वह विरह-काल ) वज्र के वाणों से (पद्मावती को) मारता है, (जिस से) वह नारौ ( पद्मावती) काँप काँप कर बेकरार (विकराल ) हो जाती है ॥ विरह किसी तरह से (पद्मावती को) नहीं छोडता है (जानौँ ) ग्रहण में चन्द्र का ग्राम हो गया, अर्थात् चन्द्र-रूपा पद्मावती कान्तिहीन हो गई । चारो ओर से नक्षत्र-रूप ( मखि त्राँ) रो रही हैं, धरती और आकाश में अँधेरा छा गया ॥ २५४ ॥ .
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