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५४४ पदुमावती । २७ । मंत्री-खंड । [२५१-२५२ फनगा = पाँखौ। करवत करपत्र = श्रारा। सिर = शिरः । सारदू = सारे रचे = मारयेत् । मरत = मरते । मोरउ = मोरूँ = फेरूँ = मूनि । अंग = अङ्ग = देह ॥ (रत्न-सेन कहता है कि) वह पद्मावती गुरु है और मैं (उस का) चेचा हूँ, जिस (गुरु) के कारण मैं ने योग-शास्त्र को खेला अर्थात् सौखा। उस के द्वार को छोड कर दूसरा ( दार) नहीं जानता, जिस दिन मिले उसी दिन (मेरौ ) यात्रा पूरी होगी। (यदि वह मिले तो) प्राण को निकाल कर मस्तक को जमीन पर रक्तूं, उस के लिये हृदय में श्रासन देऊँ। कौन ऐसा है जो मुझे ले कर उस के पैर को छुत्रावे, और नया जन्म दे कर नई शरौर करे। वह प्राण से भी अधिक प्यारी है, (यदि) माँगे (तो) प्राण दे कर बलिदान करूँ। यदि शिर माँगे तो गले के साथ शिर को देऊ, यदि जी मारे तो और भी अधिक झुक जाऊँ। मुझे अपने प्राण का लोभ नहीं है, प्रेम-द्वार में हो कर, अर्थात् पैठ कर, (केवल ) उसो को, अर्थात् उसी के, दर्शन को माँगता हूँ, अर्थात् यही चाहता हूँ कि कोई उपकारी उस का दर्शन करा दे ॥ (मेरे लिये) उस का दर्शन दौए के ऐसा है और अरे (कुर लोग) में भिखारी ( उस दौए मैं जलने-वाला) फतिंगा हूँ। यदि वह मेरे सिर पर श्रारा रकबे, अर्थात् चलावे, तो मरते मरते अंग न मोरूँ, अर्थात् प्राण निकलते निकलते भी भारे के सामने से न हटू ॥ २५१ ॥ चउपाई। पदुमावति कवला ससि जोती। हँसइ फूल रोअइ तब मोती ॥ बरजा पितइ हसौ अरु रोजू। लाए दूत होइ निति खोजू ॥ जउ हिँ सुरुज कहँ लागेउ राहू। तउ हिँ कवल मन भण्उ अगाह ॥ बिरह अगस्तौ बिसमउ भण्ज । सरवर हरख सूखि सब गाज ॥ परगट ढारि सकइ नहिँ आँख । घटि घटि माँसु गुपुत होइ नातू ॥ जस दिन माँझ रइनि होइ आई। बिगसत कवल गाउ कुम्हिलाई ॥ राता बदन गएउ होइ सेता। भवर भवति रहि गई अचेता॥ दोहा। चितहिँ जो चितर कौन्ह धनि रोड रोड अंग समेटि। सहस साल दुख आहि भरि मुरुछि परौ गइ मेटि ॥ २५२ ॥