५४२ पदुमावती । २४ । मंत्री-खंड । [२५०-२५१ (राजा रत्न-सेन कहता है कि) जब तक मैं गुरु ( पद्मावती) को नहीं पहचाना था तब तक (उस के और मेरे) बीच में करोडों पर्दै थे। जब चौन्ह गया तो ( उस के सेवाय) दूसरा कोई नहीं, शरीर, मन, जीव और यौवनावस्था सब वही गुरु है। (मुझे) मैं मैं कहता भीतर धोखा था, जो सिद्ध हुआ तो (फिर) कहाँ परछाहौँ, अर्थात् अब गुरु-कृपा से सिद्ध होने पर फिर दिल के भीतर कहाँ भ्रम रह सकता है, प्रसिद्ध है कि सिद्ध के शरीर की परवाही नहीं देख पडतो, वह सिद्ध हो कर स्वयं प्रकाशवान् हो जाता है। (चाहे ) गुरु मारे वा गुरु जिवावे और (दूसरा) कौन मार सकता है (क्योंकि इस संसार में गुरु को छोड) और सब मरने के लिये श्राए हुए हैं। गुरु शूली पर चढा कर (फिर ) हाथिओं से (घर को) भर देता है, कुछ नहीं जानता हूँ, (सब कुछ) गुरु जानता है। हाथी पर चढा हुश्रा गुरु सब को परीक्षा करता है वा सब को देखता रहता है, (निश्चय समझो कि ) जो यह जगत् (कुछ) नहीं है, (कुछ) नहीं है, उस सब को भी गुरु देखा करता है। जैसे अंधा मौन जल में दौडा करता है (पर उस ) जड को वह जीवन, अर्थात् जल, देख नहीं पडता, (उसी तरह प्राणी लोग अंधे हो कर दूस संसार में दौडा करते हैं परन्तु संसार उन को नहीं देख पडता) ॥ मेरा गुरु घोडे को साज दे कर, अर्थात् तरङ्ग मा चञ्चल मन को तयार कर, मेरे भिर पर खडा हुआ है, (शिर के) भौतर कल को हिला रहा है (दूसौ से ) बाहर काठ (की पुतली मौ) यह शरीर नाँच रही है। योगक्रिया में उस परमात्मा का स्थान, जिसे ब्रह्मगुफा कहते हैं, शिर में है। वही मन-घोडे को इन्द्रिय-कल के द्वार से चारो ओर नचाया करता है। योगाभ्यास से जब योगी उस ब्रह्मगुफा में पहुंच जाता है। तब ब्रह्म-रूप गुरु को पहचानता है। पहचानने पर फिर उसे जौने और मरने की चिन्ता मिट जाती है। स्वयं ब्रह्मखरूप हो जाता है ॥ २५ ॥ - चउपाई। सो पदुमावति गुरु हउँ चेला। जोगतंत जेहि कारन खेला ॥ तजि ओहि बार न जानउँ दूजा। जेहि दिन मिलइ जातरा पूजा ॥ जौउ काढि भुइँ धरउँ ललाटू। भोहि कहँ देउँ हिश्रा मँह पाटू ॥
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