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५४० पदुमावतौ । २8 । मंत्री-खंड । [२४६ - २५० बात का खटका एक-वचन । सब = सर्व । ठाउँ = ठाव = स्थान । जहं = जहाँ यत्र । देखउँ = पश्यामि = देखता है। श्रोहि = उसी को। दोसर = दूसरा = द्वितीय। कह = कहाँ = कुत्र । जाउँ = यानि =जाऊँ ॥ सब (कुर ) योगिओं ने राजा (रत्न-सेन ) को पकड रकला, (बेचारा) वियोगी ( रत्न-सेन ) दुःख के ऊपर दुःख सह रहा है। (मुझे) कोई पकड रहा है दूस (राजा के) जौव में नहीं है, (राजा कहने लगा कि ) मैं नहीं जानता कि मरना और जौना कैसा होता है। उस ( पद्मावती) ने गले में नाग-पाश डाल दिया है, (अब) हर्ष और विस्मय एक भी जी में नहीं है। जिस ने जो दिया है, वहौ नैराश्य कर (जौ को) ले ले, ( मुझे कुछ परवाह नहौं ) जब तक शरीर में श्वास है तब तक (वह) न भूले ( यही मेरौ प्रतिज्ञा है)। (ऐसा कह ) उस वैरागी ( रत्न-सेन) ने हाथ से फिंगरी के तारों को बजाने और स्नेह गीत को गाने लगा। (गौत का अर्थ यही था कि) उस (पद्मावती) ने अच्छा किया जो ला कर मेरे गले में फाँसी डाली, (अब ) मेरे दिल में शोच नहीं क्रोध और शुभेच्छा भी नष्ट हो गई । मैं तो उसी दिन अपने गले में फंदे को डाल दिया जिस दिन प्रेम-राह में पड कर खेलने को चला, अर्थात् योगी का सवाँग बनाया ॥ ( मेरी समझ में तो वह प्राणप्रिया पद्मावती) समय पृथ्वी में क्या प्रगट क्या छिपे सब स्थानों में पूर्ण (विराजमान ) हो रही है, जहाँ देखता हूँ तहाँ उमी को देखता हूं ( मेरे लिये ) दूसरा ( हई ) नहीं है, ( इस लिये ) कहाँ जाऊँ ॥ २४८ ॥ ( चउपाई। जब लगि मई अहा न चीन्हा। कोटि अँतर पट हुत बिच दोन्हा ॥ जउँ चौन्हा तउ अउरु न कोई । तन मन जिउ जोबन सब सोई॥ हउँ हउँ कहत धोख अंतराहौँ। जो भा सिद्ध कहाँ परछाहौँ ॥ मारइ गुरू कि गुरू जिावा। अउरु को मार मरइ सब आवा ॥ सूरौ मेलि हसति गुरु पूरू। हउँ नहिँ जानउँ जानइ गूरू ॥ गुरू हसति पर चढा सो पेखा। जगत जो नास्ति नास्ति सब देखा ॥ अंध मौन जस जल मह धावा। जल जौअन पुनि दिसिटि न आवा ॥