५३८ पदुमावती । २8 । मंत्री-खंड । [२४८-२४६ - गुरु (रत्न-सेन) ने कहा कि चेले लोग सिद्ध हो जाओ, प्रेम-द्वार में हो कर अर्थात् पैठ कर, क्रोध न करना चाहिए। जिस के लिये झुका कर भिर दीजिए, ( वहाँ) यदि भय कौजिए तो (फिर) रंग नहीं होता, अर्थात् भय करने से मनुष्य बदरंग हो कर फीका पड़ जाता है। जिस के हृदय में वह (सच्चा) प्रेम का पानी ( उत्पन्न ) हुश्रा, उस (पानी) में जो रंग मिले वह वही (प्रेम-रंग हो जाय, अर्थात् प्रेम-रस में किसी रंग के पड़ने से उस में विकार नहीं होता वह ज्यों का त्यों बना रहता है। यदि प्रेम से युद्ध होता हो तो सिद्ध लोग, जिन्हों ने (प्रेम को) बूझ लिया है, क्यों तपस्या कर के मरते। यही बहुत सत्यता है जो युद्ध न कीजिए, अर्थात् इस अवसर पर युद्ध न करना यही सब से बढ कर सच्ची बहादुरी है, (दूस अवसर पर) खड्ग को देख कर पानी हो कर ढरक जाना चाहिए। पानी के लिये खड्ग को धारा क्या है, अर्थात् कुछ नहीं है, (पानी को) जो मारता है वही उलट कर पानी हो जाता है, अर्थात् पानी को मारने के लिये जो पानी में पैठता है वह पानी के भीतर ही गल कर पानी हो जाता है। पानी से भाग क्या कर सकती है, अर्थात् क्रोधाग्नि शान्त-रूप पानी के पडते ही बुझ कर ठंढी हो जाती है, जहाँ पानी पडा कि (वह ) बुझ जाती है ॥ प्रेम के पैर में भिर डाल कर मैं ने पहले ही से (अपने) शिर को दे दिया है, अब तो मैं उस प्रीति को निबाहता हूँ, और सिद्ध हो कर खेल कर (उस प्रेम-द्वार मैं) चलता ह ॥ २४८ ॥ चउपाई। राजहि छैकि धरे सब जोगी। दुख ऊपर दुख सहइ बिनोगौ ॥ ना जिउ धडक धरत हइ कोई। न जनउँ मरन जिअन कस होई ॥ नाग-फाँस उन्ह मेली गौत्रा हरख न बिसमउ एकउ जोत्रा॥ जेइँ जिउ दीन्ह सो लेउ निरासा। बिसरइ नहिँ जउँ लहि तन साँसा ॥ कर फिंगरौ तेइ तंत बजावा। नेह गौत बैरागी गावा॥ भलेहिँ आनि गिअ मेलो फाँसौ। हिअइँ न सोच रोस रिस नासी मइँ गिअ-फाँद ओही दिन भेला। जेहि दिन पेम-पंथ होइ खेला ॥
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