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५३२ पदुमावति । २8 । मंत्री-खंड। [२४५-२९६ महात्मा अक्रूर सिद्ध कृष्ण भगवान का भी सजा सजाया काम बिगाड देते हैं। क्रोध कर राजा लोगों को भी पकड़ लेते हैं। सिद्धरूप गिद्ध जिन की दृष्टि आकाश के ऊपर रहती है उन से (अपने ) नाश के सेवाय कुछ नही बसाती अर्थात् कुछ नहीं चलती॥ दशमस्कन्ध श्रीमद्भागवत के ५७ अध्याय में कथा है कि उदास हो कर द्वारिका से के चले जाने पर कृष्ण से कुछ भी न हो सका । द्वारिका के लोग श्राधि व्याधि और अवर्षण से बहुत ही पौडित हो गए। अन्त में कृष्ण के उपदेश से जब लोग प्रार्थना कर अक्रूर को द्वारिका में ले आए तब सब रोग नष्ट हुए और वृष्टि भी हुई ॥ सिद्ध गोरख-नाथ जब कामाक्षा में गए तो वहाँ एक दुष्टा स्त्री ने व्यभिचार को इच्छा से भिक्षा माँगते हुए गोरख के एक गरीब चेले को पकड रक्खा । गोरख ने क्रोध से उस राज्य के सब लोगों को पत्थर कर दिया। अन्त में जब वहाँ का राजा गिडगिडा कर गोरख के पैरों पर पड़ा तब गोरख ने कृपा कर सब का उद्धार किया। इस प्रकार भारतवर्ष में सिद्धों को सैकडौँ कहानियाँ प्रसिद्ध है ॥ २४५ ॥ चउपाई। श्रावहु करौ गुदर मिस साजू । चढहु बजाइ जहाँ लगि राजू ॥ होहु सँजोइल कुऔर जो भोगी। सब दर 3कि धरहु अब जोगी ॥ चउबिस लाख छतर-पति साजे । छपन कोटि दर बाजन बाजे ॥ सहस सिंघलौ चाले। गिरिह पहार पुहुमि सब हाले ॥ जगत बराबर देइ सब चाँपा। डरा इंदर बासुकि हिअ काँपा॥ पदुम कोटि रथ साजे आवहिँ। गिरि होइ खेह गगन कहँ धावहिँ । जनु भुइँ-चाल चलत तहँ परा। कुरमहि पौठि टूटि हिअ डरा ॥ बाइस दोहा। छतरहिँ सरग छाइ गा सूरज गएउ अलापि । दिनहिँ राति असि देखी चढा इँदर होइ कोपि ॥ २४६ ॥ श्राश्रो । करौ= करिए। गुदर = गुदरौ = कन्था । मिस = बहाना। साजू = माज = तयारौ। चढह = उचलत = चढो। बजादू = संवाद्य श्रावक-श्रायात- मिष =